भक्ति किस प्रभु की करनी चाहिए गीता अनुसार (Which God should by Worshipped as per Gita)
इसलिए सूक्ष्मवेद में कहा कि:-
“भजन करो उस रब का, जो दाता है कुल सब का”
श्रीमद् भगवत् गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 तथा 16-17 में कहा है कि यह संसार ऐसा है जैसे पीपल का वृक्ष है। जो संत इस संसार रूपी पीपल के वृक्ष की मूल (जड़ों) से लेकर तीनों गुणों रूपी शाखाओं तक सर्वांग भिन्न-भिन्न बता देता है। (सः वेद वित्) वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है अर्थात् वह तत्वदर्शी सन्त है।
अपने द्वारा रची सृष्टि का ज्ञान तथा वास्तविक आध्यात्म ज्ञान परमात्मा स्वयं पृथ्वी पर प्रकट होकर अपने मुख कमल से सुनाता है। परमात्मा अपने अमर धाम से चलकर पृथ्वी पर प्रकट होता है। वह अच्छी आत्माओं को मिलता है। वह तत्वदर्शी सन्त की भूमिका करके तत्व ज्ञान दोहों, चौपाईयों, शब्दों द्वारा बोलता है। उस परमेश्वर ने सन् 1398 से 1518 तक 120 वर्ष पृथ्वी पर भारत वर्ष की पावन धरती पर काशी शहर में जुलाहे (धाणक) के रूप में रहकर तत्वज्ञान बताया था।
कबीर, अक्षर पुरूष एक पेड़ है, क्षर पुरूष वाकी डार।
तीनों देवा शाखा हैं, पात रूप संसार।।
कबीर, अक्षर पुरूष वृक्ष का तना है, क्षर पुरूष है डार।
त्रयदेव शाखा भए, पात जानों संसार।।
कबीर, हम ही अलख अल्लाह हैं, मूल रूप करतार।
अनन्त कोटि ब्रह्मण्ड का, मैं ही सृजनहार।।
सरलार्थ:- वृक्ष का जो हिस्सा पृथ्वी से बाहर दिखाई देता है। उसकी जानकारी बताई है कि वृक्ष का जो तना होता है, उसे तो “अक्षर पुरूष” जानें। तने के ऊपर कई मोटी डार निकलती हैं, उनमें से एक डार को ‘‘क्षर पुरूष‘‘ जानें। फिर उस डार के मानों तीन शाखा निकली हैं। वे तीनों देवता:- (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव जी) जानें और उन शाखाओं पर लगे पत्ते जीव-जन्तु जानें।
परमेश्वर कबीर जी ने तत्वज्ञान में सब ज्ञान बताया है। कहा है कि संसार वृक्ष की मूल यानि जड़ें रूप जो परम अक्षर ब्रह्म है, वह हम यानि कबीर जी हैं। गीता अध्याय 4 श्लोक 32 में भी कहा है कि यज्ञों अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों की जानकारी (ब्रह्मणः मुखे) सच्चिदानन्द घन ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म ने अपने मुख कमल से बोली, वाणी में विस्तार के साथ कही है, वह तत्वज्ञान है। गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में कहा है कि जो तत्वज्ञान परमात्मा स्वयं बताता है। उसको उसके कृपा पात्र सन्त ही समझते हैं। उस तत्वज्ञान को तू तत्वदर्शी सन्तों के पास जाकर समझ। उनको दण्डवत् प्रणाम (पृथ्वी पर पेट के बल लम्बा लेटकर प्रणाम) करके, नम्रतापूर्वक प्रश्न करने से वे तत्वदर्शी सन्त तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे।
परमेश्वर ने यह तत्वज्ञान स्वयं पृथ्वी पर प्रकट होकर बताया था। गीता अध्याय 15 श्लोक 1 में तत्वदर्शी सन्त की पहचान बताई है कि जो सन्त संसार रूपी वृक्ष को मूल (जड़) से लेकर सर्व अंगों को जानता है, वह तत्वदर्शी सन्त है।
अब जानें संसार रूपी वृक्ष के सर्र्वांग:-
- मूल (जड़):- यह परम अक्षर ब्रह्म है जो सबका मालिक है। सबकी उत्पत्ति करता है। सबका धारण-पोषण करने वाला है जिसकी जानकारी गीता अध्याय 8 श्लोक 1 के प्रश्न का उत्तर गीता अध्याय 8 के ही श्लोक 3, 8, 9, 10 तथा 20, 21, 22 में दिया है। उसी का वर्णन गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में है। जैसे गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में दो पुरूष बताए हैं:- एक “क्षर पुरूष” दूसरा “अक्षर पुरूष”, ये दोनों तथा इनके अन्तर्गत जितने शरीरधारी प्राणी हैं, वे सब नाशवान हैं। जीव आत्मा तो किसी की नहीं मरती।
गीता अध्याय 15 के ही श्लोक 17 में कहा है कि (उत्तम पुरूषः) अर्थात् पुरूषोत्तम तो (अन्यः) अन्य ही है जिसे (परमात्मा इति उदाहृतः) परमात्मा कहा जाता है (यः लोक त्रयम्) जो तीनों लोकों में (अविश्य विभर्ती) प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है (अव्ययः ईश्वरः) अविनाशी परमेश्वर है, यह परम अक्षर ब्रह्म संसार रूपी वृक्ष की मूल (जड़) रूप परमेश्वर है। यह वह परमात्मा है जिसके विषय में सन्त गरीब दास जी ने कहा है:-
“भजन करो उस रब का, जो दाता है कुल सब का”
यह असँख्यों ब्रह्माण्डों का मालिक है। यह क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष का भी मालिक तथा उत्पत्तिकर्ता है।
- अक्षर पुरूष:- यह संसार रूपी वृक्ष का तना जानें। यह 7 शंख ब्रह्माण्डों का मालिक है, नाशवान है।
- क्षर पुरूष:- यह गीता ज्ञान दाता है, इसको “क्षर ब्रह्म” भी कहते हैं। यह केवल 21 ब्रह्माण्डों का मालिक है, नाशवान है।
- तीनों देवता (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) तीन शाखाऐं:- ये एक ब्रह्माण्ड में बने तीन लोकों (पृथ्वी लोक, पाताल लोक तथा स्वर्ग लोक) में एक-एक विभाग के मंत्री हैं, मालिक हैं।
जैसे = रजगुण विभाग के श्री ब्रह्मा जी मालिक हैं, जिसके प्रभाव से सर्व प्राणी सन्तानोत्पत्ति करते हैं। सतगुण विभाग के श्री विष्णु जी मालिक हैं, जिससे एक-दूसरे में ममता बनी रहती है, कर्मानुसार सर्व का किया फल देते हैं। तमोगुण विभाग के श्री शंकर जी मालिक हैं, जिसके कारण सर्व का अन्त होता है और पात रूप में संसार के प्राणी जानो। यह है संसार रूपी वृक्ष के सर्र्वांगों की भिन्न-भिन्न जानकारी। यह ज्ञान स्वयं परमेश्वर कबीर जी ने अपने मुख कमल से बोला था। वह कबीर वाणी, कबीर बीजक, कबीर शब्दावली तथा कबीर सागर में श्री धनी धर्मदास (बाँधवगढ़ वाले) द्वारा लिखा गया था। उस परमेश्वर ने तो बताया ही था या वर्तमान में इस दास (संत रामपाल दास) ने समझा है। यह कृपा परमेश्वर कबीर जी की ही है कि सम्पूर्ण आध्यात्म ज्ञान मुझे प्राप्त है।
गीता अध्याय 15 श्लोक 1 के अनुसार तत्वदर्शी सन्त की पहचान से भी यह सिद्ध हुआ कि यह दास (संत रामपाल दास) वह तत्वदर्शी सन्त है।
पुनः प्रसंग पर आते हैं कि ‘‘भजन करो उस रब का, जो दाता है कुल सब का।‘‘
अभी तक तो यही बताया है कि भक्ति करनी चाहिए परंतु अब यह स्पष्ट करते हैं कि भक्ति किसकी करें? 1. श्री ब्रह्मा जी रजगुण की या 2. श्री विष्णु जी सतगुण की या 3. तमगुण श्री शिव जी रूपी तीनों शाखाओं की या फिर 4. क्षर पुरूष गीता ज्ञान दाता डार की या 5. अक्षर पुरूष तना की या 6. परम अक्षर पुरूष = मूल की।
उदाहरण:- यदि हम नर्सरी से कोई आम का पौधा लाते हैं, उसको अपने खेत या घर के आँगन में रोपते हैं तो कैसे रोपते हैं?
जमीन में गढ्ढ़ा खोदते हैं, पौधे की मूल (जड़ों) को गढ्ढ़े में रखकर मिट्टी से ढ़क देते हैं। फिर पौधे की मूल (जड़ों) में पानी से सिंचाई करते हैं, खाद डालते हैं अर्थात् पौधे की जड़ की पूजा करते हैं। जड़ों से आहार तने में, तना अपने अनुसार आहार रखकर बचा हुआ आगे डार में भेज देता है। डार अपने लिए आवश्यक आहार रखकर शेष शाखाओं में भेज देती है। इसी प्रकार शाखाऐं शेष भोजन पत्तों तक भेजती हैं। इस प्रकार वह पौधा पेड़ बनकर फल देता है। पाठक जन बहुत बुद्धिमान हैं। समझ गए होंगे कि हमने किस परमात्मा की पूजा करनी चाहिए?
सूक्ष्मवेद में परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि:-
कबीर, एकै साधै सब सधै, सब साधै सब जाय।
माली सींचै मूल कूँ, फूलै फलै अघाय।।
एक मूल मालिक की पूजा करने से सर्व देवताओं की पूजा हो जाती है जो शास्त्रानुकूल है। जो तीनों देवताओं में से एक या दो (श्री विष्णु सतगुण तथा श्री शंकर तमगुण) की पूजा करते हैं या तीनों की पूजा ईष्ट रूप में करते हैं तो वह गीता अध्याय 13 श्लोक 10 में वर्णित अव्यभिचारिणी भक्ति न होने से व्यर्थ है। जैसे कोई स्त्राी अपने पति के अतिरिक्त अन्य पुरूष से शारीरिक सम्बन्ध नहीं करती, वह अव्यभिचारिणी स्त्री है। जो कई पुरूषों से सम्पर्क करती है, वह व्यभिचारिणी होने से समाज में निन्दनीय होती है। वह पति के दिल से उतर जाती है।
शास्त्रानुकूल साधना अर्थात् सीधा बीजा हुआ भक्ति रूपी पौधे का चित्र इसी देखें
शास्त्रविरूद्ध साधना अर्थात् उल्टा बीजा हुआ भक्ति रूपी पौधा देखें
उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट हुआ कि एक मूल मालिक की भक्ति करने से साधक का आत्म-कल्याण सम्भव है।
अन्य प्रमाण:- गीता अध्याय 3 श्लोक 10 से 15 में इसी उपरोक्त भक्ति का समर्थन किया है।
- गीता अध्याय 3 श्लोक 10 = प्रजापति ने अर्थात् कुल के मालिक ने सृष्टि के आदि में यज्ञ सहित अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों के ज्ञान सहित प्रजाओं को उत्पन्न करके आदेश दिया था कि तुम सब धार्मिक अनुष्ठानों द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ। यह यज्ञ अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान तुम लोगों को ईच्छित भोग प्रदान करने वाले हैं। (गीता अध्याय 3 श्लोक 10)
- इस शास्त्रानुकूल धार्मिक अनुष्ठान द्वारा देवताओं (संसार रूपी पौधे की शाखाओं) को उन्नत करो अर्थात् पूर्ण परमात्मा (मूल मालिक) को ईष्ट मानकर साधना करने से शाखाऐं अपने आप उन्नत हो जाती हैं जैसाकि पूर्व में स्पष्ट हो चुका है। फिर वे देवता (शाखाऐं बड़ी होकर फल देंगी) तुम लोगांे को उन्नत करें अर्थात् जब हम शास्त्रानुकूल साधना करेंगे तो हमारे भक्ति कर्म बनंेगे, कर्मों का फल ये तीनों देवता (श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी रूपी शाखाऐं ही) देते हैं। इस प्रकार एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम्हारा कल्याण होगा तथा इससे दूसरे परमात्मा को प्राप्त हो जाओगे। (यह ज्ञान गीता ज्ञान दाता बता रहा है। (गीता अध्याय 3 श्लोक 11)
- शास्त्रानुकुल किए यज्ञ अर्थात् अनुष्ठानों द्वारा बढ़ाए हुए देवता अर्थात् संसार रूपी पौधे की शाखाऐं तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। जैसे पौधे की मूल की सिंचाई करने से पौधा पेड़ बन जाता है व शाखाऐं फलों से लदपद हो जाती हैं। फिर उस वृक्ष की शाखाऐं अपने आप प्रतिवर्ष फल देती रहेंगी यानि आप जी का किया शास्त्रानुकूल भक्ति कर्म का फल जो संचित हो जाता है, उसे यही देवता आपको देते रहेंगे, आप माँगो या न माँगो। यदि उन देवताओं द्वारा दिया गया आपका कर्म संस्कार का धन पुनः धर्म में नहीं लगाया तो वह साधक भक्ति का चोर है। वह भविष्य में पुण्य रहित होकर हानि उठाता है। (गीता अध्याय 3 श्लोक 12)
- यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले संतजन सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। भावार्थ है कि तत्वदर्शी सन्त सर्वप्रथम परम अक्षर ब्रह्म को भोग लगाकर फिर बचे हुए भोजन को सर्व भक्तों में वितरित करता है। यह पहचान है सत्य साधना की तो वह सन्त सर्व भक्ति मन्त्रा भी शास्त्रानुकूल देता है। जिस कारण से साधक सर्व पापों से मुक्त होकर सत्यलोक में चला जाता है और जो पापी लोग शास्त्राविधि अनुसार धार्मिक क्रियाऐं नहीं करते या धर्म नहीं करते, केवल अपने शरीर पोषण के लिए अन्न पकाते हैं। वे तो पाप को ही खाते हैं। (गीता अध्याय 3 श्लोक 13)
- सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं अर्थात् अन्न खाने से शरीर में संतानोत्पत्ति का पदार्थ बनता है जिससे सर्व प्राणियों की उत्पत्ति होती है। अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है। वर्षा शास्त्राविधि अनुसार किए गए यज्ञ अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान से होती है। यज्ञ अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान शास्त्रों में वर्णित विधि से किए जाते हैं। कर्म को ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरूष से उत्पन्न हुए जान क्योंकि हम ब्रह्म (काल) के लोक में आए हैं तो हमको कर्म करके ही सब प्राप्त होता है। जब हम सत्यलोक में थे, तब बिना कर्म किए सब प्राप्त था। इसलिए कहा है कि कर्म को ब्रह्म (काल) से उत्पन्न जान तथा ब्रह्म (काल) की उत्पत्ति अविनाशी परमात्मा से हुई। (जिसका वर्णन गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में है तथा सृष्टि रचना अध्याय में पढे़ं।) इससे सिद्ध होता है कि (सर्वगतम् ब्रह्म) सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म सदा ही यज्ञों में अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों में (प्रतिष्ठितम्) प्रतिष्ठित है अर्थात् सब धार्मिक क्रियाओं में परम अक्षर ब्रह्म ईष्ट रूप में पूज्य है। (गीता अध्याय 3 श्लोक 14-15)
परम अक्षर ब्रह्म गीता ज्ञान दाता से अन्य है। गीता ज्ञान दाता ने स्वयं गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि हे भारत! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म की शरण में जा, उस परमेश्वर की कृपा से ही तू परम शान्ति को तथा शाश्वत स्थान अर्थात् सनातन परम धाम को प्राप्त होगा।
गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में गीता ज्ञान दाता ने बताया है कि तत्वदर्शी सन्त मिलने के पश्चात् तत्वज्ञान रूपी शस्त्रा द्वारा अज्ञान को काटकर परमेश्वर के उस परम पद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर कभी संसार में जन्म नहीं लेते अर्थात् उनको सनातन परम धाम प्राप्त हो जाता है, जहाँ परमशान्ति है, कोई कष्ट नहीं है, वहाँ मृत्यु नहीं होती, वहाँ वृद्धावस्था नहीं होती, किसी पदार्थ का अभाव नहीं हैं। जिस परमेश्वर से संसार रूपी वृक्ष की प्रवृति विस्तार को प्राप्त हुई है, उसी परमेश्वर की भक्ति करनी चाहिए।
- गीता अध्याय 13 श्लोक 17 में गीता ज्ञान दाता ने बताया है कि वह परब्रह्म अर्थात् मेरे से दूसरा प्रभु दूसरे शब्दों में परम अक्षर ब्रह्म(जिसके विषय में गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में कहा है।) ज्योतियों का भी ज्योति, माया से अति परे कहा जाता है, बोधरूप (जानने योग्य) परमात्मा तत्वज्ञान से प्राप्त करने योग्य है और सबके हृदय में विशेष रूप से स्थित है। (गीता अध्याय 13 श्लोक 17)
विचार करें:- जिस तत्वज्ञान से परम अक्षर ब्रह्म प्राप्त होता है, उसे सू़क्ष्म वेद भी कहते हैं। उसका ज्ञान गीता ज्ञान दाता को नहीं है। इसलिए गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 4 श्लोक 32 तथा 34 में बताया है कि यज्ञों अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों का विस्तारपूर्वक ज्ञान स्वयं (ब्रह्मणः मुखे) सच्चिदानन्द घन ब्रह्म परमात्मा अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म अपने मुख कमल से बोलकर बताता है जो सच्चिदानन्द घन ब्रह्म की वाणी कही जाती है, उसे तत्वज्ञान कहते हैं। उसे जानकर साधक सर्व पापों से मुक्त हो जाता है। (गीता अध्याय 4 श्लोक 32)
पाठकों से निवेदन है कि गीता अध्याय 4 श्लोक 32 के मूल पाठ में “ब्रह्मणः” शब्द है। गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित गीता या अन्य स्थानों से प्रकाशित गीता में अनुवादकों ने ब्रह्मणः का अर्थ “वेद” किया है जो गलत है। गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में भी “ब्रह्मणः” शब्द है, उसमें अनुवादकों ने ठीक अर्थ “सच्चिदानन्द घन ब्रह्म” किया है। इसलिए गीता अध्याय 4 श्लोक 32 में “ब्रह्मणः मुखे” का अर्थ सच्चिदानन्द घन ब्रह्म के मुख कमल से उच्चरित वाणी में करना उचित है।
गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि उस तत्वज्ञान को जिसे परमेश्वर अपने मुख कमल से बताता है, तू तत्वदर्शी सन्तों के पास जाकर समझ, उनको दण्डवत् प्रणाम करने से, नम्रतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म तत्व को भली-भाँति जानने वाले तत्वदर्शी महात्मा तुझे तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे।
प्रभु प्रेमी पाठक जनों! इससे सिद्ध हुआ कि वह तत्वज्ञान जिससे परम अक्षर परमात्मा प्राप्त होता है, गीता ग्रन्थ में नहीं है। गीता चारों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद) का संक्षिप्त रूप है, उनका सारांश है। इससे सिद्ध हुआ कि सूक्ष्मवेद वाला तत्वज्ञान किसी भी प्रचलित सद्ग्रन्थ में नहीं है। वह ज्ञान मेरे (सन्त रामपाल दास) पास है, विश्व में किसी के पास नहीं है।
प्रश्न:- क्या श्री ब्रह्मा जी रजगुण, श्री विष्णु जी सतगुण तथा श्री शिव जी तमगुण भी ईष्ट रूप में पूज्य नहीं है? हिन्दू धर्म में इन्हीं देवताओं की पूजा की जाती है। हिन्दू धर्मगुरू, शंकराचार्य तथा अन्य इन्हीं की पूजा ईष्ट रूप में मानकर करने को कहते हैं, वे स्वयं भी करते हैं। आपकी बात अविश्वसनीय लगती है, क्या आप गीता में प्रमाणित कर सकते हैं?
उत्तर:- हिन्दू धर्म के धर्मगुरूओं को अपने सद्ग्रन्थों का ही ज्ञान नहीं। जैसे अक्षर ज्ञान देने वाले अध्यापक को अपने पाठ्यक्रम की पुस्तकों के उल्लेख का ही ज्ञान नहीं तो वह अध्यापक विद्यार्थियों के लिए हानिकारक होता है। वह शिक्षक ठीक नहीं, यही दशा हिन्दू धर्म के धर्मगुरूओं की है।
प्रमाण:- श्रीमद् भगवत गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि तीनों गुणों से (रजगुण श्री ब्रह्मा जी से उत्पत्ति, सतगुण श्री विष्णु जी से स्थिति तथा तमगुण श्री शंकर जी से संहार) जो हो रहा है, उसका निमित मैं हूँ, परंतु उनमें मैं तथा वे मुझमें नहीं हैं। (गीता अध्याय 7 श्लोक 12), पहले यह प्रमाणित करते हैं कि रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव शंकर है:-
- मार्कण्डेय पुराण (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित केवल हिन्दी सचित्र मोटा टाईप) के पृष्ठ 123 पर लिखा है कि ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश ब्रह्म की प्रधान शक्तियाँ हैं। ये ही तीन गुण हैं, ये ही तीन देवता हैं।
- श्री देवी पुराण (श्री खेमचन्द श्री कृष्ण चन्द वैंकेटेश्वर प्रैस मुम्बई से प्रकाशित) के तीसरे स्कंद के अध्याय 5 श्लोक 8 में कहा है:-
यदा दयादर्मना सदा अम्बिके कथम् अहमं विहितः तमोगुणः कमलजः रजगुणः कथम् विहितः च श्री हरिः सतगुणः (देवी पुराण 3(5)8)
अनुवाद:- भगवान शिव अपनी माता दुर्गा जी से प्रश्न कर रहे हैं कि हे मातः! यदि आप हम पर दयायुक्त हैं तो मुझे तमोगुण क्यों उत्पन्न किया? कमल से उत्पन्न ब्रह्मा जी को रजोगुण तथा श्री विष्णु जी को सतगुण क्यों बनाया?
इससे प्रमाणित हुआ कि
- रजगुण कहो चाहे ब्रह्मा जी कहो,
- सतगुण कहो चाहे विष्णु जी कहो,
- तमगुण कहो चाहे शिव जी कहो।
गीता अध्याय 7 श्लोक 12 का भावार्थ:- गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म है। प्रमाण गीता अध्याय 11 श्लोक 31-32, अध्याय 11 श्लोक 31 में अर्जुन ने पूछा किः-
हे महानुभाव! आप कौन हैं? जबकि श्री कृष्ण जी तो अर्जुन के साले थे। श्री कृष्ण जी की बहन सुभद्रा का विवाह अर्जुन से हुआ था। विचार करें कि यदि गीता ज्ञान दाता श्री कृष्ण होते तो अर्जुन को यह जानने की नौबत नहीं आती कि आप कौन हो? क्या जीजा अपने साले को नहीं जानता? वास्तव में श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रेतवत् प्रवेश करके काल ब्रह्म गीता ज्ञान बोल रहा था। (“अधिक प्रमाण के लिए पढें पुस्तकें “गीता तेरा ज्ञान अमृत”, ‘‘गहरी नजर गीता में‘‘, “ज्ञान गंगा”, आध्यात्मिक ज्ञान गंगा तथा देखें सत्संगों की क्ण्टण्क्ण् श्री मद्भगवत गीता का ज्ञान किसने बोला। ये सब हमारी website www.jagatgururampalji.org पर उपलब्ध है, निःशुल्क डाउनलोड कर सकते हैं। YouTube पर भी search कर सकते हैं। (Satlok Ashram Barwala या Sant Rampal Ji)
गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म है जो गीता अध्याय 11 श्लोक 32 में स्वयं कह रहा है कि मैं काल हूँ, अब प्रवृत हुआ हूँ अर्थात् अब प्रकट हुआ हूँ। यदि श्री कृष्ण जी गीता ज्ञान बोल रहे होते तो यह नहीं कहते कि मैं अब आया हूँ क्योंकि श्री कृष्ण जी तो पहले ही विद्यमान थे। श्री कृष्ण जी ने कभी पहले नहीं कहा कि मैं काल हूँ, न कभी बाद में कहा कि सबका नाश करने वाला बढ़ा हुआ काल हूँ। कौरवों की सभा में अपना विराट रूप भी दिखाया था। विराट रूप भक्ति युक्त प्रत्येक आत्मा का होता है। कोई-कोई ही इसे प्रकट कर सकता है। यह भक्ति की शक्ति अनुसार होता है।
गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 11 श्लोक 47 में कहा है कि अर्जुन! मेरा यह विराट रूप तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा है। “पाठकों से निवेदन है कि श्री कृष्ण जी ने तो अपना विराट रूप पहले कौरवों की सभा में दिखाया था” जो उपस्थित सैंकड़ों कौरवों सहित हजारों ने देखा था। यदि श्री कृष्ण जी गीता ज्ञान बोल रहे होते तों यह कदापि नहीं कहते कि यह मेरा विराट रूप तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा था। इससे स्पष्ट है कि गीता ज्ञान दाता “काल ब्रह्म” है जिसे गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में क्षर पुरूष कहा गया है। जिसने गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में कहा है कि:-
“ओम् इति एकाक्षरम् ब्रह्म व्यवहारन् माम् अनुस्मरन्
यः प्रयाति त्यजन् देहम् सः याति परमाम् गतिम्”
सरलार्थ:- गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि (माम् ब्रह्म) मुझ ब्रह्म का (ओम् इति एकाक्षरम्) यह एक ऊँ अक्षर है। (व्यवहारन्) उच्चारण करके (अनुस्मरन्) स्मरण करता हुआ (यः प्रयाति त्यजन् देहम्) जो साधक शरीर त्यागकर जाता है, (सः याति परमाम् गतिम्) वह ऊँ नाम से होने वाली परम गति को प्राप्त होता है, इसी को और स्पष्ट करता हूँ।
श्री देवी पुराण (सचित्र मोटा टाईप केवल हिन्दी, गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित) के सातवें स्कंद में पृष्ठ 562-563 पर प्रकरण इस प्रकार है:-
श्री देवी जी राजा हिमालय को ब्रह्म ज्ञानोपदेश देती है। कहा कि हे राजन्! तू ओम् (ऊँ) नाम का जाप कर जिससे ब्रह्म की प्राप्ति होती है। यह ऊँ नाम ब्रह्म जाप मन्त्रा है और सब बातों को, पूजाओं को त्यागकर केवल एक ऊँ नाम का जाप कर, ब्रह्म प्राप्ति का उद्देश्य रख, तेरा कल्याण हो। इससे ब्रह्म को प्राप्त हो जाएगा, वह ब्रह्म दिव्य आकाश रूपी ब्रह्म लोक मंे रहता है। इस देवी महापुराण से स्पष्ट हुआ कि ओम् (ऊँ) नाम जाप ब्रह्म का है।
अन्य प्रमाण:- श्री शिव महापुराण (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित सचित्र मोटा टाईप) के विध्वेश्वर संहिता के पृष्ठ 23 से 25 पर प्रकरण इस प्रकार है:-
एक समय श्री ब्रह्मा जी रजगुण तथा विष्णु जी सतोगुण का युद्ध हो गया। कारण था कि श्री ब्रह्मा जी ने श्री विष्णु जी के निवास पर जाकर कहा कि हे अभिमानी! तूने मेरे आने पर उठकर सत्कार नहीं किया, तू पुत्र होकर भी पिता का सत्कार नहीं करता। मैं सर्व जगत की उत्पत्ति करने वाला सबका पिता हूँ। यह वचन सुनकर श्री विष्णु जी को अंदर से तो बहुत क्रोध आया परंतु ऊपर से मुस्कुराते हुए कहा कि आजा पुत्र, मैं तेरा पिता हूँ। तेरी उत्पत्ति मेरे नाभि कमल से हुई है। इसी बात पर दोनों ने हथियार उठा लिए, आपस में युद्ध करने लगे। उसी समय काल ब्रह्म ने इन दोनों के बीच में एक तेजोमय स्तंभ खड़ा कर दिया। जिस कारण से दोनों ने युद्ध करना बंद कर दिया। उसी समय काल ब्रह्म ने अपने पुत्र शिव का रूप बनाया तथा अपनी पत्नी दुर्गा को पार्वती बनाकर उनके पास प्रकट हो गए। उन दोनों से कहा कि तुम दोनों को ज्ञान नहीं है कि यहाँ का ईश कौन है? मैं ब्रह्म हूँ। यह संसार मेरा है, हे विष्णु तथा ब्रह्मा! तुम दोनों ने तप करके मेरे से एक-एक कृत प्राप्त किए हैं। ब्रह्मा को सृष्टि की उत्पत्ति तथा विष्णु को स्थिति। पुत्रो सुनो! मैनें इसी प्रकार महेश तथा रूद्र को भी एक-एक कृत संहार तथा तिरोभाव दिए हैं। फिर कहा है कि मेरा एक अक्षर ओम् (ऊँ) मन्त्रा जाप करने का है। यह पाँच अवयवों (अ, उ, य, नाद तथा बिन्दु) का संग्रह एक ‘‘ऊँ‘‘ अक्षर मन्त्र बना है। पाठक जनों को स्पष्ट हुआ कि ‘‘ऊँ‘‘ एक अक्षर ब्रह्म का जप मंत्र है। यह भी स्पष्ट हुआ कि श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री महेश से अन्य काल ब्रह्म है और ब्रह्मा जी, विष्णु जी तथा शिव जी तीनों काल ब्रह्म के पुत्र हैं।
अन्य प्रमाण:- श्री शिव महापुराण (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित, सचित्र मोटा टाईप) में रूद्र संहिता के पृष्ठ 110 पर लिखा है कि रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव तीनों देवताओं में गुण हैं। मैं इनसे भिन्न हूँ।
इन सर्व प्रमाणों से स्पष्ट हुआ कि गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म है, इसे श्राप लगा है कि यह प्रतिदिन एक लाख मानव शरीरधारी प्राणियों को खाएगा तथा सवा लाख प्रतिदिन उत्पन्न करेगा।
इस कारण से इसने अपने तीनों पुत्रों को एक-एक गुणयुक्त बना रखा है, इनके शरीर से निकल रहे गुणों का सूक्ष्म प्रभाव प्रत्येक प्राणी को विवश करके कार्य करवाता है। जैसे रसोई घर में मिर्चों का छौंक लगता है, छींक आती है। उन छींकों को कोई नहीं रोक पाता। स्थूल रूप में मिर्च रसोई घर में होती हैं, उनसे निकले गुण ने दूर कमरे में बैठे व्यक्तियों को प्रभावित कर दिया।
इसी प्रकार तीनों देवता (श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी) अपने-अपने लोकों में रहते हैं, परन्तु उनके शरीर से निकल रहे गुणों का सूक्ष्म प्रभाव तीनों लोकों (स्वर्ग लोक, पाताल लोक, पृथ्वी लोक) के प्राणियों को प्रभावित करता रहता है। जिससे काल ब्रह्म के लिए एक लाख मानव का आहार तैयार होता है। इसीलिए गीता अध्याय 7 श्लोक 12 में गीता ज्ञान दाता ब्रह्म ने कहा है किः-
- तीनों गुणों से जो कुछ भी हो रहा है, उसका निमित कारण मैं ही हूँ। जैसे रजगुण ब्रह्मा जी से उत्पत्ति, सतगुण विष्णु जी से स्थिति तथा तमगुण शिव जी से संहार होता है। यह सब मेरे लिए ही इनके द्वारा हो रहा है ऐसा जान, परन्तु वे मुझमें और मैं उनमें नहीं हूँ क्योंकि काल ब्रह्म इन तीनों देवताओं से भिन्न रहता है। (गीता अध्याय 7 श्लोक 12)
- सारा संसार इन्हीं तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) पर ही मोहित है। इन्हीं तक ज्ञान रखता है। इन तीनों देवताओं से परे मुझको तथा (अव्ययम्) उस अविनाशी परमात्मा को नहीं जानता। (गीता अध्याय 7 श्लोक 13)
- क्योंकि यह अलौकिक त्रिगुणमयी मेरी माया (अर्थात् मेरे पुत्रों द्वारा फैलाया मायाजाल) बड़ी दुस्तर है, निक्कमी है। जो साधक केवल मुझ (काल ब्रह्म) को भजते हैं, वे इस माया (ब्रह्मा, विष्णु, महेश की भक्ति से होने वाले लाभ से अधिक लाभ ब्रह्म भक्ति में है। इसलिए कहा है कि जो इन तीनों से मिलने वाले लाभ को त्यागकर काल ब्रह्म की साधना करते हैं, वे इनका उल्लंघन करके अर्थात् इनकी साधना का त्याग कर देते हैं) का उल्लंघन कर जाते हैं। (गीता अध्याय 7 श्लोक 14)
- गीता अध्याय 7 श्लोक 15 में कहा है कि:- तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव जी) रूपी मायाजाल द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है अर्थात् जो साधक इन तीनों देवताओं से भिन्न प्रभु को नहीं जानते। इन्हीं से मिलने वाले नाममात्र लाभ से ही मोक्ष मानकर इन्हीं से चिपके रहते हैं, इन्हीं की पूजा करते रहते हैं। ऐसे व्यक्ति असुर स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूर्ख जन मुझ काल ब्रह्म को नहीं भजते। (गीता अध्याय 7 श्लोक 15)
गीता अध्याय 14 श्लोक 19 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि जिस समय दृष्टा अर्थात् तत्वज्ञान सुनने वाला और जो तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) की ईष्ट रूप में पूजा करने वाला अपनी पुरानी धारणा को नहीं बदलता अर्थात् इन तीनों के अतिरिक्त किसी को कर्ता नहीं मानता और इन तीनों से परे पूर्ण परमात्मा का ज्ञान भी प्राप्त कर लेता है, वह मेरे ही जाल में रह जाता है। (गीता अध्याय 14 श्लोक 19)
गीता अध्याय 14 श्लोक 20 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि देहधारी मनुष्य इन तीनों का उल्लंघन करके अर्थात् इन तीनों की पूजा त्यागकर ही जन्म-मरण तथा वृद्धावस्था के तथा अन्य सब दुःखों से मुक्त होकर परमानन्द अर्थात् गीता अध्याय 18 श्लोक 62 तथा अध्याय 15 श्लोक 4 में वर्णित परम शान्ति तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होता है।
सारांश:- तीनों देवताओं (ब्रह्मा जी रजगुण, विष्णु जी सतगुण तथा शिव जी तमगुण) की पूजा करने वाले राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूर्ख कहा है। भावार्थ है कि इनकी पूजा नहीं करनी चाहिए।
कारण:-
- श्री ब्रह्मा जी रजगुण की पूजा हिरण्यकश्यप ने की थी, अपने पुत्र प्रहलाद का शत्रु बन गया, राक्षस कहलाया, कुत्ते वाली मौत मरा।
- श्री शिव जी तमगुण की पूजा रावण ने की थी, जगतजननी सीता को उठाया, पत्नी बनाने की कुचेष्टा की, राक्षस कहलाया, कुत्ते की मौत मरा। भस्मासुर ने भी तमगुण शिव जी की पूजा की थी, राक्षस कहलाया, बेमौत मारा गया।
- श्री विष्णु जी की पूजा करने वाले वैष्णव कहलाते हैं। एक समय हरिद्वार में एक कुम्भ का पर्व लगा। उस पर्व में स्नान करने के लिए सर्व सन्त (गिरी, पुरी, नाथ, नागा) पहुँच गए। नागा श्री शिव जी तमगुण के पुजारी होते हैं तथा वैष्णव श्री विष्णु सतगुण के पुजारी होते हैं। सभी हरिद्वार में हर की पैड़ी पर स्नान करने की तैयारी करने लगे जो सँख्या में लगभग 20 हजार थे। कुछ देर बाद इतनी ही सँख्या में वैष्णव साधु हर की पैड़ियों पर पहुँच गए। वैष्णव साधुओं ने नागाओं से कहा कि हम श्रेष्ठ हैं, हम पहले स्नान करेंगे। इसी बात पर झगड़ा हो गया। तलवार, कटारी, छुरों से लड़ने लगे, लगभग 25 हजार दोनों पक्षों के साधु तीनों गुणों के उपासक कटकर मर गए।
इसलिए गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव जी) के उपासकों को राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच दूषित कर्म करने वाले मूर्ख कहा है।
इससे सिद्ध हुआ कि श्री ब्रह्मा रजगुण, श्री विष्णु सतगुण तथा श्री शिव तमगुण की भक्ति करने वाले मूर्ख, राक्षस, मनुष्यों में नीच तथा घटिया कर्म करने वाले मूर्ख व्यक्ति हैं अर्थात् इनकी पूजा करना श्रीमद् भगवत गीता में मना किया है, इनकी ईष्ट रूप में पूजा करना व्यर्थ है।