अन्य अंध श्रद्धा भक्ति पर प्रकाश (Insight on Other Blind Worship Practices)

परमात्मा कबीर जी का शब्द:-

रै भोली-सी दुनिया, सतगुरू बिन कैसे सरियाँ।(टेक)
अपने लला के बाल उतरवावैं, कह कैंची ना लग जईयाँ।
एक बकरी का बच्चा लेकर, उसका गला कटईयाँ।।1।।
काचा-पाका भोजन बनाकर, माता धोकने गईयाँ।
इस मूर्ति माता पर कुत्ता मूतै, वह क्यों ना मर गईयाँ।।2।।
जीवित बाप से लठ्ठम-लठ्ठा, मूवे गंग पहुँचईयाँ।
जब आवै आसौज का महीना, कऊवा बाप बणईयाँ।।3।।
पीपल पूजै जाँडी पूजे, सिर तुलसाँ के अहोइयाँ।
दूध-पूत में खैर राखियो, न्यूं पूजूं सूं तोहियाँ।।4।।
आपै लीपै आपै पोतै, आपै बनावै होईयाँ।
उससे भौंदू पोते माँगै, अकल मूल से खोईयाँ।।5।।
पति शराबी घर पर नित ही, करत बहुत लड़ईयाँ।
पत्नी षोडष शुक्र व्रत करत है, देहि नित तुड़ईयाँ।।6।।
तज पाखण्ड सत नाम लौ लावै, सोई भवसागर से तरियाँ।
कह कबीर मिले गुरू पूरा, स्यों परिवार उधरियाँ।।7।।

शब्दार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने अंध श्रद्धा भक्ति करने वाले तत्वज्ञानहीन जनताजनों को उनके द्वारा की जा रही शास्त्र विरूद्ध साधना यानि उपासना को तर्क करके लाभ रहित यानि व्यर्थ सिद्ध किया है। कहा है कि:-

हे भोली जनता! गुरू के बिना आपका कोई भी अध्यात्म कार्य नहीं सरेगा यानि सिद्ध नहीं होगा।

वाणी सँख्या 1:- अपने लला के बाल उतरवावैं, कह कैंची ना लग जईयाँ।
एक बकरी का बच्चा लेकर, उसका गला कटईयाँ।।1।।

भावार्थ:- शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण करने के लिए अज्ञानी गुरूओं द्वारा भ्रमित अंध श्रद्धालु माता अपने नवजात बच्चे को लेकर अपने ईष्ट देव-देवी के मंदिर में जाती है। आन-उपासकों द्वारा बनाए शास्त्रविरूद्ध विद्यान अनुसार नवजात शिशु के सिर के प्रथम बार वाले बाल उतरवाती (कटवाती) है। उन बालों को मंदिर में अपने ईष्ट पर चढ़ाती है। यह मान रखा है कि इससे ईष्ट देव या देवी प्रसन्न होते हैं तथा बच्चे की सदा रक्षा करते हैं। बाल काटने के लिए मंदिर में मेले के समय उपस्थित नाई के पास बाल कटवाने वालों की लाईन लगी होती है। नाई शीघ्र-शीघ्र निपटाने के उद्देश्य से तेजी से कैंची चलाता है। किसी-किसी बच्चे को कैंची लग जाती है। बच्चा रोता है। अपने बच्चे के बाल कटवाने की बारी आते ही माता नाई को सतर्क करती है कि हे भाई नाई! ध्यान से कैंची चलाना, मेरे लला (बालक-बेटे) का कच्चा सिर है, कहीं कैंची न लग जाए। बच्चे के कटे हुए बालों को कपड़े में बाँधकर मंदिर में चढ़ा देती है। पुजारी उसको खोलकर एक खाली कट्टे में डालता रहता है। मेला समाप्त होने के पश्चात् उन बालों को दूर कचरे के ढ़ेर में डाल देता है। बाल मंदिर में चढ़ाने के पश्चात् ईष्ट को बकरे की बलि दी जाती है जो पहले से ही अपने होने वाले बच्चे की खैर (रक्षा) के लिए संकल्प की गई होती है।

कबीर परमेश्वर जी ने इस विषय में सटीक तर्क देते हुए कहा है कि हे अंध श्रद्धावान! कुछ तो विवेक कर। अपने बच्चे को तो कैंची लगने से भी बचाती है, उसकी रक्षा (खैर) के लिए बकरी के बच्चे की गर्दन कटवाते समय कुछ भी तरस (दया) नहीं आया। परमात्मा का विधान है कि जो पाप किया (बकरे की बलि दी) वह तो तेरे को भोगना पड़ेगा। वह पत्थर की देवी या देव कुछ भी मदद न तेरी, न तेरे बच्चे की कर सकती है जो आपको भ्रम है।

विचार करें:- यदि वहाँ उस मंदिर में वास्तव में देवी या देव होता और आप उसके घर में बाल डालते तो इसी बात पर आप से नाराज होकर दण्ड देते। देवी-देवता सभ्य और शाकाहारी नेक प्रवृति के होते हैं। वे कभी माँस, मदिरा तथा अन्य नशीली वस्तुओं का सेवन नहीं करते। पुजारी उन बालों को फैंक देते हैं। क्या वे बाल बैंक में जमा करवाने के योग्य होते हैं? आप अपने बच्चों के बाल स्वयं ही किसी नाई से कटवा दो। किसी मंदिर में ले जाकर अपने कर्म व धन तथा वक्त नष्ट न करो।

पूर्ण गुरू से शिक्षा लो यानि आध्यात्मिक ज्ञान सुनो तथा दीक्षा लो यानि गुरू बनाकर शास्त्र वर्णित साधना करके पापों से मुक्ति पाओ तथा मोक्ष कराओ।

वाणी सँख्या 2:- काचा-पाका भोजन बनाकर, माता धोकने गईयाँ।
इस मूर्ति माता पर कुत्ता मूतै, वह क्यों ना मर गईयाँ।।2।।

भावार्थ:- आन-उपासना की अन्य विधि यह भी है कि गाँव या नगर के बाहर किसी वृक्ष के नीचे तने से सटाकर या किसी ऊँचे स्थान पर बिना वृक्ष के ही दस फुट लम्बा चैड़ा या इससे भी छोटा चबूतरा (चैरा) यानि प्लेटफार्म बनाकर उसके ऊपर दो फुट या तीन-चार फुट ऊँचा तथा एक-डेढ़ फुट चैड़ा एक मंदिरनुमा घर बनाते हैं, उसे मंढ़ी कहते हैं। वर्ष में एक या दो बार, किसी निश्चित दिन उस देई धाम पर धोक लगाने (पूजा करने) दादी माँ अपने पूरे परिवार को लेकर जाती है। उसे पता होता है कि जो भी भोजन ईष्ट के लिए बनाकर उस मंढ़ी में रखते हैं, उसे कुत्ते खाते हैं। वह वृद्धा अपनी पुत्रवधु से कहती है कि बेटी! आज माता की धोक लगाने मंढ़ी पर चलना है। उसके लिए मीठा दलिया या पूड़े-गुलगुले बना ले। पुत्रवधु माता का भोग तैयार करने लग जाती है। देर तो लगती ही है। उधर से खेत या मजदूरी के लिए जाने का समय भी हो जाता है। बुढ़िया कहती है कि बेटी! काच्चा-पाक्का बना दे, जल्दी कर। कुत्तों ने तो खाना ही है। पूरे परिवार को साथ लेकर वृद्धा उस मंढ़ी पर वह माता का भोग प्रसाद दूर से फैंक देती है तथा पूरे परिवार को कहती है कि हाथ जोड़कर चच-चच कह दो। एक लोटे में जल लेकर जाती है। उसे माता के ऊपर डाल देती है। परिवार माता की धोक लगाकर चबूतरे से नीचे भी नहीं आता, उसी समय कुत्ते जो वहीं पर भोग लगाने के लिए बेताब (उतावले) खड़े होते हैं, माता की मंढ़ी के प्लेटफार्म पर चढ़कर प्रथम तो माता का भोग चट करते हैं, चलते समय उस माता पर पेशाब कर देते हैं। परमेश्वर कबीर जी ने इस विषय पर तर्क दिया है कि हे भोली अंध भक्ति करने वाली जनता! विचार कर, जिस मंढ़ी वाली देवी माता की आप पूजा इसलिए करती हो कि यह मंढ़ी में उपस्थित देवी हमारे परिवार की तथा खेती और पशुधन की रक्षा करती है। यदि उस मंढ़ी में देवी उपस्थित होती तो उसके भोजन को कुत्ता खा गया, उसके ऊपर मूत्र की धार लगा गया। वह कुत्ता तेरी पत्थर की माता ने मारा क्यों नहीं? यदि आप भोजन कर रहे हो और कोई कुत्ता आकर आपके भोजन को खाने लगे तो आप उसको डंडे-लाठी से मारोगे। यदि आपके ऊपर मूत दे तो उसकी हड्डी-पसली एक कर दो। परंतु आपकी पूज्य देवी तो बहुत विवश है या उसे अधरंग लगा है। उससे भक्ति लाभ की झूठी आशा त्यागकर पूर्ण गुरू से शास्त्र विधि अनुसार सत्य भक्ति की दीक्षा व शिक्षा (ज्ञान) लेकर अपना तथा परिवार का कल्याण करवाओ।

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