अंध श्रद्धा भक्ति कैसे प्रारम्भ हुई? (How did Blind Worship Start)
काल ब्रह्म यानि ज्योति निरंजन को चिंता रहती है कि यदि मानव समाज को इस रहस्य का ज्ञान हो गया तो विश्व का मानव समाज परम शांति तथा सनातन परम धाम को प्राप्त हो जाएगा जिसका वर्णन गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में किया गया है। काल के इक्कीश ब्रह्माण्ड खाली हो जाऐंगे। इस कारण से अंध श्रद्धा भक्ति यानि शास्त्रा विधि को त्यागकर मनमाने आचरण की शुरूवात सत्ययुग से ही काल ब्रह्म ने करवा दी थी। ऋषियों ने पहले तो वेदों में वर्णित विधि से साधना की। {ॐ (ओं) नाम का स्मरण तथा पाँचों यज्ञ की।} इस साधना से परमात्मा प्राप्ति नहीं होती। यह गीता अध्याय 11 श्लोक 48 में स्पष्ट है कि चारों वेदों में वर्णित नाम जप, यज्ञ, दान, उग्र तपों से काल ब्रह्म की प्राप्ति नहीं होती। जिस कारण से ऋषियों ने परमेश्वर को निराकार कहकर संतोष कर लिया। इस कारण से ऋषिजन कुछ सिद्धियाँ व कुछ रिद्धियाँ प्राप्त करते थे। जिस कारण से लोक में प्रसिद्धि बन जाती थी। फिर अपनी जीवन की गाड़ी को चलाने के लिए अन्य नागरिक सेवकों का कष्ट निवारण तथा धन लाभ के लिए वेदों के मंत्रों (श्लोकों) को नित्य पाठ करने के लिए देते थे। कुछ जिज्ञासुओं को भी वेद ज्ञान के साथ-साथ अपना अनुभव बताने लगे कि परमात्मा निराकार है। हमने वेदों में लिखे ॐ (ओउम्) का जाप तथा पाँचों यज्ञ करके समाधि लगाकर कोशिश कर ली, परमात्मा नहीं मिलता। वह तो निराकार है।
श्री ब्रह्मा रजगुण, श्री विष्णु सतगुण तथा श्री शिव तमगुण जो साकार देवता हैं, ये ही परमेश्वर का साकार रूप हैं। जो जिज्ञासु ऋषि थे, उन्होंने अपने वरिष्ठ ऋषियों से सुने अधूरे आध्यात्मिक ज्ञान का प्रचार करना शुरू कर दिया। उनको संस्कृत भाषा का ज्ञान होता था। वेद मंत्रा संस्कृत में बोलते थे। प्रवचन वेदों के विपरित करते थे कि परमात्मा निराकार है। उसे देखा नहीं जा सकता। श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव ही परमात्मा का साकार स्वरूप हैं। ये अविनाशी हैं। इनके कोई माता-पिता नहीं हैं। श्री ब्रह्मा की भक्ति निषेध बताई तथा श्री विष्णु तथा शिव जी की भक्ति करने का विधान बताया जो वेद तथा गीता शास्त्रों के विरूद्ध है। इनके साथ-साथ इन्हीं ऋषियों ने देवी दुर्गा (अष्टंगी माया), देवी काली आदि देवियों की साधना की तथा करने की राय दी। ऋषियों ने परमात्मा प्राप्ति का उद्देश्य त्याग दिया। लोक में प्रसिद्धि तथा निर्वाह के लिए धन प्राप्ति के उद्देश्य के लिए साधनाऐं करनी प्रारम्भ कर दी। इसी कारण श्राद्ध-पिण्डदान, मूर्ति पूजा को बढ़ावा मिला। यह सब काल का जाल है।
उदाहरण:- जिस समय राजा परीक्षित को सर्प ने डसना था और राजा की मृत्यु निश्चित थी। यह बात ऋषियों को पता थी। ऋषि कश्यप ने साधना करके तनकष्ट निवारण की सिद्धि प्राप्त कर रखी थी। ऋषि कश्यप अपने निवास स्थान से राजा परीक्षित को मिलने हस्थिनापुर (वर्तमान में दिल्ली) की ओर चले। उद्देश्य यह था कि तक्षक सर्प राजा को डसेगा। मैं अपनी सिद्धि वाले मंत्रा से जीवित कर दूँगा। जिसके बदले मुझे राजा बहुत धन देगा। इस बात का ज्ञान तक्षक सर्प को हुआ तो वह उसी मार्ग में मानव रूप धारण करके खड़ा हो गया जिस मार्ग से ऋषि कश्यप जी हस्थिनापुर जा रहे थे। तक्षक ने ऋषि से पूछा कि ऋषि जी! कहाँ जा रहे हो? ऋषि जी ने उत्तर दिया कि मैं हस्थिनापुर जा रहा हूँ। राजा परीक्षित को तक्षक सर्प डसेगा। राजा की मृत्यु होगी, मैं उसे जीवित कर दूँगा। तक्षक सर्प ने कहा कि मैं ही तक्षक सर्प हूँ। मैं अपने विष से इस विशालकाय पीपल के वृक्ष को जलाकर राख कर सकता हूँ। ऋषि ने कहा कि मेरे पास ऐसा मंत्रा है कि मैं इस वृक्ष को पुनः वैसा ही हरा कर दूँगा। तक्षक ने मानव रूप से सर्प रूप धारण कर पीपल के वृक्ष को डंक मारा। देखते-देखते वृक्ष जलने लगा और कोयला बन गया। ऋषि कश्यप जी ने अपने करमण्डल से जल लेकर मंत्रा पढ़कर वृक्ष की राख व कोयलों पर छींटा कर दिया। उसी समय पीपल का वृक्ष वैसा ही हरा-भरा हो गया। तक्षक ने कहा कि ऋषि जी आप किस उद्देश्य से राजा को जीवित करना चाहते हैं? ऋषि ने धन प्राप्ति का उद्देश्य बताया। तक्षक ने कहा कि ऋषि जी! यदि राजा परीक्षित मेरे डसने से नहीं मरा तो भिण्डी ऋषि का शाॅप मुझे लगेगा कि तूने जान-बूझकर उसे नहीं डसा। हे कश्यप ऋषि जी! आपको मैं राजा परीक्षित से भी अधिक धन दे दूँगा। यह कहकर तक्षक ने अनेकों हीरे, सोने की मोहरें ऋषि के आगे रख दी। कहा कि आप इसे लेकर लौट जाइये। ऋषि ने विचार किया कि देख तो लूँ कि राजा परीक्षित की आयु भी शेष है कि नहीं। यदि राजा की आयु शेष नहीं होगी तो मैं उसे अपने मंत्रा से जीवित नहीं कर सकूँगा। कश्यप ऋषि ने देखा कि राजा परीक्षित की आयु शेष नहीं है। उसी दिन तक जीवन शेष है। कश्यप ऋषि तक्षक की बात मानकर बहुत सारा धन लेकर लौट आया। यदि राजा परीक्षित की आयु शेष होती तो कश्यप ऋषि तक्षक की बात नहीं मानता क्योंकि जो धन राजा देता, उतना तक्षक वाला नहीं था। दूसरा लाभ यह भी था कि राजा को जीवन दान देने से लोक (देश) में अत्यधिक महिमा होती। राजा की आयु शेष न होने से ऋषि ने तक्षक के धन से संतोष करना उचित समझा।