चारों वेद तथा सूक्ष्मवेद कैसे प्राप्त हुए? (How were Four Vedas and Sukshma Veda Obtained)
सर्वप्रथम सतपुरूष (परम अक्षर ब्रह्म) ने सूक्ष्मवेद को काल ब्रह्म (ज्योति निरंजन जो इन इक्कीश ब्रह्माण्डों का प्रभु है) के अंतःकरण (हृदय) में डाला था। (म्उंपस किया था।) सम्पूर्ण अध्यात्म ज्ञान यानि सूक्ष्मवेद काल ब्रह्म के श्वासों द्वारा बाहर निकला। इसने सूक्ष्मवेद को पढ़ा। सूक्ष्मवेद में सतपुरूष तथा सतलोक (सनातन परम धाम) का सम्पूर्ण विवरण था। हम क्यों जन्म-मर रहे हैं? जन्म-मरण से मुक्ति तथा सतपुरूष तथा सतलोक प्राप्ति कैसे होती है? ये विस्तार से बताया था। यह काल ब्रह्म जिसे वेदों के विद्वान ब्रह्म कहते हैं, धोखेबाज है। इसने उस सूक्ष्मवेद से वह प्रकरण निकालकर नष्ट कर दिया जिसमें उपरोक्त वर्णन था। शेष ज्ञान रख लिया जिससे जन्म-मरण तथा अन्य प्राणियों के शरीर प्राप्त करने वाला चक्र सदा बना रहेगा। इसके पीछे काल ब्रह्म का विशेष स्वार्थ है जो आप आगे पढ़ेंगे। शेष बचे वेदज्ञान को श्री वेदव्यास ऋषि जी ने चार भागों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद) में विभाजित किया जो वर्तमान में प्राप्त है। वेदों का जो महत्वपूर्ण ज्ञान काल ब्रह्म ने नष्ट कर दिया था, उसको बताने के लिए सतपुरूष (परम अक्षर ब्रह्म) स्वयं पृथ्वी पर प्रकट होकर अपने मुख कमल से दोहों, चैपाईयों, कविताओं के रूप में बोलकर बताते हैं। वह वाणी लिखी जाती हैं। वह सतपुरूष की वाणी कही जाती है। उस वाणी में सम्पूर्ण अध्यात्म ज्ञान है। इस उपरोक्त वर्णन की पुष्टि के लिए कृपा पढ़ें विस्तारपूर्वक जो आगे बताया है।
इसी पुस्तक ‘‘अंध श्रद्धा भक्ति खतरा-ए-जान’’ में अध्याय ‘‘सृष्टि रचना’’ है। उसको पढ़ने से पता चलेगा कि हम सब प्राणी जो काल ब्रह्म के इक्कीश ब्रह्माण्डों में जन्म-मृत्यु व अन्य कष्ट सहते हुए रह रहे हैं, कैसे आए? क्यों जन्म मर रहे हैं?
कुछ संक्षिप्त वर्णन यहाँ किया जाता है।
हम सभी प्राणी, मानव तथा अन्य पशु-पक्षी आदि-आदि के शरीर धारण किए हैं। पहले उस सनातन परम धाम (सत्यलोक) में परम अक्षर ब्रह्म के साथ रहते थे। वहाँ कोई जरा-मरण व जन्म नहीं है। इसीलिए वहाँ परम शांति है। इसीलिए गीता का ज्ञान बोलने वाले ने अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि हे भारत! तू सर्व भाव से उस परमेश्वर (तत् ब्रह्म) की शरण में जा। उस परमेश्वर की कृपा से ही तू परम शांति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा।
जब तक जन्म-मरण समाप्त नहीं होगा, तब तक जरा यानि वृद्धावस्था भी आएगी। यदि पूरा समय करके मृत्यु होती है तो भी जीव को परम शांति प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि तत्वज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् परमेश्वर के उस परम पद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में कभी नहीं आते। जिस परमेश्वर ने संसार रूप वृक्ष का विस्तार (सृजन) किया है, उसी की भक्ति करो।
गीता ज्ञान देने वाला तो स्वयं जन्म-मरण में है। प्रमाण गीता अध्याय 4 श्लोक 5, अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 10 श्लोक 2 में। इसने अपनी भक्ति करने के लिए गीता अध्याय 8 श्लोक 5 तथा 7 में कहा है। इसकी भक्ति से जन्म-मरण सदा बना रहेगा। उपरोक्त परम शांति नहीं हो सकती। गीता ज्ञान बताने वाले ने अपनी साधना का ज्ञान गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में कहा है कि मुझ ब्रह्म का केवल एक अक्षर ‘ओं’ (ॐ) है। इसका स्मरण करने वाले को ब्रह्मलोक प्राप्त होता है जहाँ पर अन्य देवताओं की भक्ति से मिलने वाले स्वर्ग सुख से हजार गुणा अधिक सुख है। परंतु ब्रह्मलोक में गए भी पुनरावर्ती (जन्म-मरण) में हैं। (प्रमाण गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में) गीता बोलने वाले प्रभु क्षर पुरूष को ईष्ट मानकर भक्ति करने वाले को परम शांति प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में अपने से अन्य उस परमेश्वर की शरण में जाने यानि ईष्ट मानकर भक्ति करने के लिए गीता ज्ञान दाता ने कहा है। उसके लिए गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में किसी तत्वदर्शी से तत्वज्ञान (सूक्ष्म) वेद जानने के लिए कहा है क्योंकि सूक्ष्मवेद वाला ज्ञान वेदों व गीता में नहीं है।
जैसा कि ऊपर बताया है कि हम सब पहले उस परमेश्वर (सतपुरूष) के पास रहते थे। वहाँ हमने गलती की थी। हमने अपने परम सुखदाई परमात्मा (सतपुरूष) की अपेक्षा काल ब्रह्म में आस्था बना ली थी। यह सतलोक में तप करके घोर तपस्या कर रहा था। हम इसे अच्छा व्यक्ति जानकर दिल से चाहने लगे। यही गलती प्रकृति देवी ने की थी। वह भी इसे अच्छा व्यक्ति मानकर आसक्त हुई थी। जिस कारण से परमात्मा यानि सतपुरूष जी ने हमारे को त्याग दिया। इस काल ब्रह्म ने तपस्या के प्रतिफल में सतपुरूष से इक्कीश ब्रह्माण्ड प्राप्त किए हैं। इसने सतलोक में युवती प्रकृति देवी (दुर्गा) के साथ दुष्कर्म करने के लिए कोशिश की थी। प्रकृति देवी (दुर्गा) अपनी इज्जत की रक्षा के लिए सूक्ष्म रूप बनाकर काल ब्रह्म के खुले मुख के द्वारा उसके पेट में चली गई। परम अक्षर ब्रह्म ने देवी को काल ब्रह्म के उदर से निकालकर देवी सहित हम सबको काल ब्रह्म के साथ सत्यलोक से सोलह (16) संख कोस (48 शंख कि.मी.) दूर यहाँ भेज दिया। परम अक्षर ब्रह्म ने प्रकृति देवी के साथ किए दुव्र्यवहार के कारण काल ब्रह्म को इक्कीश ब्रह्माण्डों सहित सतलोक से निकाल दिया।
यहाँ आने के पश्चात् इस काल ने हमारी सब यादाश्त समाप्त कर दी कि हम कहाँ से आए हैं? जन्म-मरण किस कारण से हो रहा है? हमारे ऊपर भक्ति करते हुए भी कष्ट आते रहते हैं? क्या कारण है?
सतपुरूष यानि परम अक्षर ब्रह्म ने देखा कि मेरे अबोध बच्चे धोखेबाज ज्योति निरंजन यानि काल ब्रह्म के साथ अपनी गलती से चले गए हैं। उसने इनको सुखसागर स्थान (सनातन परम धाम) का तथा मेरा ज्ञान ही समाप्त कर दिया है। अपने को परमेश्वर तथा जगत का उत्पन्नकर्ता तथा पालनकर्ता सिद्ध कर रखा है। इसलिए परमेश्वर ने सूक्ष्मवेद (तत्वज्ञान) इस काल ब्रह्म के अंतःकरण में डाल दिया यानि ई-मेल कर दिया। सूक्ष्मवेद में वह सर्व वर्णन था जो इसी पुस्तक के पृष्ठ 208 पर सृष्टि रचना में लिखा है तथा सत्य साधना भी लिखी थी। जिसको पढ़-सुनकर सत्य साधना करके प्रत्येक मानव (स्त्री-पुरूष) सतलोक में चला जाता। परमात्मा की कृपा से वह सम्पूर्ण ज्ञान काल ब्रह्म की नासिका द्वारा श्वासों के साथ बाहर प्रकट हो गया। काल ब्रह्म ने पढ़ा तो घबरा गया कि यदि मेरे साथ आए प्राणियों को इस ज्ञान का पता चल गया तो सब मेरे लोक से निकल जाऐंगे।
इसने विचार किया कि मुझे परमात्मा ने शाॅप दे रखा है कि एक लाख मानव शरीरधारी प्राणियों का नित्य आहार करेगा। मेरी क्षुधा कैसे शांत होगी? ऐसा विचार करके इस काल ब्रह्म ने सूक्ष्मवेद से सृष्टि रचना तथा पूर्ण परमात्मा की भक्ति के साधना मंत्रा निकाल दिए। केवल अपनी साधना का मंत्रा ओं (ॐ) छोड़ दिया तथा अन्य सामान्य ज्ञान भी छोड़ दिया। जो शेष आध्यात्मिक ज्ञान बचा यानि चारों वेदों को काल ब्रह्म ने सागर में छुपा दिया। जो सागर मंथन करने से बाहर आया, काल ब्रह्म ने अपनी पत्नी अष्टंगी देवी (दुर्गा देवी) से कहा कि चारों वेदों वाला ज्ञान जो सागर मंथन में निकले, उसे ब्रह्मा को देना, वही पढ़े। ब्रह्मा जी ने वेद प्राप्त किये और पढ़े। ब्रह्मा जी ने वेदों को जैसा समझा, वैसा ज्ञान अपनी संतान ऋषियों को बताया। जिसमें स्पष्ट लिखा है कि यदि साधक पूर्ण मोक्ष प्राप्त करना चाहता है तो केवल एक पूर्ण ब्रह्म की साधना ईष्ट रूप में करे। अन्य देवी-देवताओं की साधना ना करे। विद्वान ऋषियों ने वेदों को पढ़कर कुछ ब्रह्मा जी से सुनकर स्वयं निष्कर्ष निकाला कि सम्पूर्ण वेद में केवल यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 15 में एक ही ओं (ॐ) मंत्रा जाप करने का लिखा है। उसी मंत्रा को पूर्ण ब्रह्म की साधना मानकर इस (‘‘ॐ’’ नाम) का जाप किया। साथ में वेदों की प्राप्ति से पूर्व जब ब्रह्मा जी सचेत हुए तो कमल के फूल पर विराजमान थे। विचार कर रहे थे कि मैं कहाँ से उत्पन्न हुआ हूँ? मुझे जन्म देने वाले कौन हैं? इस अगाध जल में मेरा क्या प्रयोजन है? आसपास कोई दिखाई नहीं दे रहा है।
उसी समय काल ब्रह्म ने आकाशवाणी की कि तप करो, तप करो। ब्रह्मा जी ने उस आकाशवाणी को पूर्ण ब्रह्म की मानकर घोर तप फूल पर बैठे-बैठे किया। एक हजार वर्ष तक तप करते हुए तो फिर आकाशवाणी हुई कि सृष्टि करो। उसके बाद ब्रह्मा ने इस घोर तप वाली साधना को भी अपनी संतान ऋषियों को करने का उपदेश दिया। घोर तप करना वेदों व गीता के विरूद्ध साधना होने से मोक्षदायक नहीं है। (गीता अध्याय 17 श्लोक 5-6 में प्रमाण है कि जो शास्त्रविधि से रहित घोर तप को तपते हैं। वे शरीर के कमलों में विराजमान देवी-देवताओं तथा सहित परमेश्वर वे मुझको भी क्रश करने वाले हैं। उन अज्ञानियों को तू असुर स्वभाव वाले जान।)
चारों वेदों में वर्णित साधना से परमात्मा प्राप्ति नहीं होती क्योंकि काल ब्रह्म ने प्रतिज्ञा कर रखी है कि मैं अपने वास्तविक काल रूप में किसी को कभी दर्शन नहीं दूँगा। मैं अपनी योगमाया यानि सिद्धि शक्ति से छिपा रहूँगा। (प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 24.25 में) इसलिए मेरे दर्शन यानि मेरी प्राप्ति न तो वेदों में वर्णित विधि से, न काल द्वारा आकाशवाणी द्वारा बताए तप से नहीं हो सकती।
प्रमाण:- गीता अध्याय 11 श्लोक 48 में:- गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म है जो श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके बोल रहा था। कहा है कि हे अर्जुन! मनुष्य लोक में इस प्रकार रूप में मैं न वेदों और यज्ञों के अध्ययन से यानि वेदों में लिखी धार्मिक क्रियाओं को पढ़कर साधना करने से, न दान करने से, न अन्य क्रियाओं से (श्राद्ध, पिण्डदान आदि-आदि कर्मकाण्ड क्रियाओं से), न उग्र तपों से देखा जा सकता हूँ। गीता अध्याय 11 श्लोक 32 में गीता ज्ञान देने वाले ने स्पष्ट कर ही दिया है कि मैं काल हूँ।
- ऋषियों ने ॐ नाम का जाप तथा ब्रह्मा जी द्वारा बताया शास्त्रविधि रहित तप तथा वेदों में वर्णित हवन आदि यज्ञों को किया। उनको परमात्मा के दर्शन नहीं हुए। उन ऋषियों को एक या दो रिद्धि-सिद्धि प्राप्त हो गई। उन्हीं का प्रदर्शन करके लोक प्रसिद्धि प्राप्त करते रहे। मोक्ष से वंचित रह गए। उन ऋषियों को काल ब्रह्म ने छल करके कुछेक को अपने पुत्रा ब्रह्मा के रूप में दर्शन दिए तो उन ऋषियों को विश्वास हो गया कि अन्य परमात्मा कोई नहीं है। यह सगुण (साकार) देवता ब्रह्मा ही सब कुछ है।
- कुछ ऋषियों को श्री विष्णु जी के रूप में दर्शन दिए तो उन्होंने भी गलती से श्री विष्णु जी को पूर्ण परमात्मा मान लिया जो साकार देवता है।
- कुछ ऋषियों को श्री शिव जी के रूप में दर्शन दिए तो उन्होंने भी भ्रमवश श्री शिव जी साकार देवता को पूर्ण ब्रह्म मान लिया।
- जिन ऋषियों ने श्री ब्रह्मा जी के रूप में देखा था। उन्होंने हजारों की सँख्या में जाकर श्री ब्रह्मा जी से कहा कि आप अपने को छिपाए हो। हमने साधना काल में समाधि दशा में आपके दर्शन किए हैं। आप पूर्ण परमात्मा हो।
- जिन ऋषियों ने श्री विष्णु जी के रूप में दर्शन किए थे, उन्होंने हजारों की सँख्या में श्री विष्णु के पास जाकर उन्हें पूर्ण परमात्मा बताया। कहा कि आप अपने को छिपाए हो।
- इसी प्रकार जिन ऋषियों ने श्री शिव रूप में देखा था, हजारों की सँख्या में उन ऋषियों ने श्री शिव जी के पास जाकर बताया कि आप पूर्ण परमात्मा हो, अपने को छिपाए हो।
विशेष:- काल ब्रह्म के द्वारा किए जाने वाले छल का प्रत्यक्ष प्रमाण श्री शिव महापुराण में विद्यवेश्वर संहिता में है। उपरोक्त ऋषियों से अपनी-अपनी महिमा मण्डन सुनकर भ्रमित श्री ब्रह्मा जी तथा श्री विष्णु जी ने एक-दूसरे को अपना पुत्र और स्वयं को सबका मालिक बताया। जिस कारण से दोनों का युद्ध हुआ। उस समय वही काल ब्रह्म यानि सदाशिव अपने पुत्र शिव के रूप में प्रकट हुआ और उनको भ्रमाया कि मैं सर्व का मालिक हूँ। तुम ईश नहीं हो। उन दोनों को अपने लिंग (गुप्तांग) के आकार का पत्थर का लिंग बनाकर उसको पत्थर की स्त्री योनि में प्रविष्ट करके देकर वेद विरूद्ध साधना उस लिंग की पूजा करके कल्याण होना बताया। उस समय श्री शिव जी के रूप में प्रकट हुआ और कहा कि तुम दोनों (ब्रह्मा-विष्णु) को उत्पत्ति तथा स्थिति दो कृत दिए हैं और मेरे जैसे स्वरूप वाले रूद्र तथा शिव को संहार तथा तिरोभाव कृत दिए हैं। इससे सिद्ध हुआ कि काल ब्रह्म प्रतिज्ञावश अपने वास्तविक रूप में किसी को दर्शन नहीं देता। ऐसे छल करके प्रकट होता है।
इस कारण से ऋषियों को परमात्मा प्राप्ति नहीं हुई। परंतु उनकी साधना से सिद्धियाँ प्राप्ति, ब्रह्मलोक प्राप्ति, तप से राज्य प्राप्ति तथा फिर नरक प्राप्ति, जन्म-मरण का चक्र प्राप्ति हुई, क्योंकि ॐ (ओउम्) नाम के जाप के प्रतिफल में ब्रह्मलोक प्राप्त हुआ। वहाँ अपना सुख समय व्यतीत करके, पृथ्वी लोक में तप के प्रतिफल में राजा बना। काल ब्रह्म का अटल विधान है कि जैसे कर्म प्राणी करेगा, उसको वैसा फल अवश्य मिलेगा यानि पुण्य व भक्ति कर्म के कारण स्वर्ग, तप से राज्य तथा पाप कर्मों से नरक तथा अन्य प्राणियों के शरीर में कष्ट अवश्य प्राप्त होगा।
इस कर्म चक्र में महाकष्ट उठा रही अपनी आत्माओं पर दया करके पिता का कर्तव्य निभाते हुए परम अक्षर ब्रह्म सूक्ष्मवेद (तत्वज्ञान) बताने स्वयं पृथ्वी पर प्रकट हुए। जो वेद ज्ञान काल ब्रह्म ने नष्ट किया था, उसकी पूर्ति की।
आप जी को चारों वेदों तथा गीता से सिद्ध करता हूँ कि वास्तव में पूर्ण परमात्मा पृथ्वी पर प्रकट होकर यथार्थ सम्पूर्ण अध्यात्म ज्ञान यानि सूक्ष्मवेद स्वयं अपने मुख से बोलकर बताता है। वह लिखा जाता है। उसे सच्चिदानंद घन ब्रह्म की वाणी कहा जाता है।
चारों वेदों व गीता में जो भक्ति विधि है, वह जन्म-मरण समाप्त करने की नहीं है, परंतु पुराणों वाली भक्ति विधि से हजार गुणा उत्तम है। इनमें वर्णित भक्ति विधि शास्त्रोक्त तो है जो अन्य अंध श्रद्धा भक्ति यानि मनमाने आचरण वाली साधना से तो हजार गुणा लाभ देती है, परंतु जन्म-मरण समाप्त करने व परमेश्वर के उस परमपद को प्राप्त कराने वाली नहीं है। जहाँ जाने के पश्चात् संसार में लौटकर कभी नहीं आते। परंतु सूक्ष्मवेद में सम्पूर्ण अध्यात्म ज्ञान तथा जन्म-मरण सदा के लिए समाप्त करने की भक्ति विधि वर्णित है। वेदों, गीता वाली साधना भी है, इससे आगे की साधना भी है जो गीता व वेदों में नहीं है जो तत्वदर्शी संत से जानने को कहा है।
प्रमाण:- यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 10 तथा गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में। यह बताने के लिए कि चारों वेद तथा सूक्ष्मवेद कैसे प्राप्त हुए, यह सब वर्णन करना अनिवार्य है जो किया गया है और आगे किया जाएगा। यदि सीधा लिख दूँ कि तत्वज्ञान परमेश्वर (परम अक्षर ब्रह्म) ने दिया तो संशय बना रहेगा। विस्तार से लिखकर स्पष्ट किया जा रहा है।
पवित्र गीता शास्त्र में सांकेतिक अनमोल ज्ञान है जिसे हमारे हिन्दू धर्मगुरू नहीं समझ पाए। इसको केवल तत्वदर्शी (सूक्ष्मवेद का ज्ञाता) ही समझ तथा समझा सकता है। वह तत्वदर्शी संत यह दास (रामपाल दास) है।
- गीता के सांकेतिक ज्ञान से प्रमाणित करता हूँ कि सूक्ष्मवेद (तत्वज्ञान) किसने बताया। इसके पश्चात् वेदों से प्रमाणित किया जाएगा।
- गीता अध्याय 4 श्लोक 25 से 30 तक बताया है कि जिसको जितना ज्ञान यज्ञों यानि धार्मिक अनुष्ठानों का है, वह उसी को पापनाशक यानि कल्याणकारक मानकर साधना कर रहा है।
- गीता अध्याय 4 श्लोक 25:- इसमें कहा है कि कुछ अन्य योगीजन (साधक) देवताओं की पूजा भली-भांति यानि तसल्ली से करते हैं। अन्य साधक परमात्मा की तड़फ रूप अग्नि में अपने अनुसार साधना करके जीवन न्यौछावर कर देते हैं।
- गीता अध्याय 4 श्लोक 26 में:- अन्य योगीजन (साधकजन) आँख-कान आदि इन्द्रियों को बंद करके संयम करके ही अपनी सफलता मानते हैं यानि इसी अग्नि यानि तड़फ में इसी को मोक्षदायक मानकर अपना जीवन हवन यानि न्यौछावर मानते हैं। अन्य साधक शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन विकारों पर अपनी इन्द्रियों को जाने से रोकने यानि संयम करने वाली साधना रूपी अग्नि में लगे रहते हैं यानि इन विषयों को हवन (नष्ट) करने में लगे रहते हैं और कोई साधना नहीं करते। इसी को अपनी भक्ति की सफलता मानकर इसी साधना में अपना जीवन समाप्त कर देते हैं।