पीपल, जांडी तथा तुलसी की पूजा (Worship of Pipal, Jandi and Tulsi)
वाणी सँख्या 4:- पीपल पूजै जाँडी पूजे, सिर तुलसाँ के होइयाँ।
दूध-पूत में खैर राखियो, न्यूं पूजूं सूं तोहियाँ।।4।।
शब्दार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने अंध श्रद्धा भक्ति करने वालों की अन्य साधनाओं का वर्णन किया है कि भोली जनता को ज्ञानहीन आध्यात्मिक गुरूओं ने कितने निम्न स्तर की साधना पर लगाकर उनके जीवन के साथ कितना बड़ा धोखा किया है। अज्ञानी गुरूओं से भ्रमित होकर पीपल व जांडी के वृक्षों तथा तुलसी के पौधे की पूजा करते हैं। प्रार्थना करते हैं कि आप सबकी पूजा इसलिए करते हैं कि मेरे दूध यानि दुधारू पशुओं की तथा पूत यानि मेरे पुत्रों व पोत्रों की खैर रखना (रक्षा करना) यानि पशु पूरा समय दूध दें। मृत्यु न हो तथा पुत्रों, पोत्रों व परपात्रों की मृत्यु ना हो। उनकी आप (पीपल तथा जांडी के पेड़ तथा तुलसी का पौधा) रक्षा करना।
परमेश्वर कबीर जी ने समझाया है कि हे अंधे पुजारियो! कुछ तो अक्ल से काम लो। जिन जड़ (जो चल-फिर नहीं सकते। उनको पशु हानि पहुँचाते हैं। वे अपनी रक्षा नहीं कर पाते। तुलसी को बकरा खा जाता है। वह अपनी रक्षा नहीं कर सकती।) वृक्षों और पौधों की पूजा करके घर-परिवार में आप धन वृद्धि तथा जीवन की रक्षा की आशा करते हो। वे स्वयं विवश हैं। आपकी रक्षा कैसे करेंगे? यह आपकी अंध श्रद्धा है जो आपके अनमोल मानव जीवन के लिए खतरा है यानि आपका मानव जीवन शास्त्र वर्णित साधना त्यागकर शास्त्र विरूद्ध साधना रूपी मनमाना आचरण करने से नष्ट हो जाएगा। वाणी सँख्या 4 में एक वाक्य है कि:-
पीपल पूजै, जांडी पूजै, सिर तुलसां के होइयां।
‘‘सिर होना’’ का तात्पर्य है कि जो कुछ नहीं कर सकता, अज्ञानता के कारण उसी व्यक्ति से अपने कार्यवश बार-बार निवेदन करना। वह व्यक्ति उस भोले मानव से कहता है कि मेरे सिर क्यों हो रहा है? मैं आपका यह कार्य नहीं कर सकता। परमेश्वर कबीर जी ने समझाया है कि जो आपके कार्य को करने में सक्षम नहीं हैं, जो कार्य परमात्मा के अतिरिक्त कोई नहीं कर सकता और जो स्वयं असहाय हैं, उनसे आप कार्य सिद्धि की आशा करते हैं। यह अज्ञानता है।
वाणी सँख्या 5:- आपै लीपै आपै पोतै, आपै बनावै अहोइयाँ।
उससे भौंदू पोते माँगै, अकल मूल से खोईयाँ।।5।।
शब्दार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने आन-उपासना की एक और अंधश्रद्धा का स्पष्टीकरण किया है। कहा कि एक भोली वृद्धा लोकवेद के अनुसार आन-उपासना करते हुए स्वयं ही अहोई नामक माता (देवी) का चित्रा बनाती है। उसके लिए पहले दीवार को गारा तथा गाय के गोबर को मिलाकर लीपती है (पलस्तर करती है) उस पर अहोई देवी का चित्रा अंकित करती है। फिर उसकी पूजा करके पुत्रावधु के लिए बेटा माँगती है। परमात्मा कबीर जी ने कहा कि ऐसे अंधश्रद्धा भक्ति करने वालों की अकल (बुद्धि) मूल से यानि जड़ से समाप्त है, वे निपट मूर्ख हैं। मन्नत मानते समय वृद्धा कहती है कि हे अहोई देवी! आप पुत्रावधु को बेटा देना, गाय को बछड़ा देना, (पुराने समय में गाय को बछड़ा होना लाभदायक था क्योंकि बछड़ा बैल बनता था। बैलों से खेती होती थी।) भैंस को चाहे कटिया (कटड़ी) ही दे देना। वृद्धा कितनी चतुर है। उसके कहने का भाव है कि आप देवी को नर यानि बछड़ा तथा बेटा माँगकर परेशान नहीं करना चाहती। भैंस को तो भले ही मादा (कटिया) दे देना। उसे पता है कि कटड़े की अपेक्षा कटिया कितनी लाभदायक है। कटड़ा तो कसाईयों को काटने के लिए बेचते थे, कोई काम नहीं आता था। बुढ़िया देवी के साथ भी कितनी चतुरता कर रही है। अपने देवताओं के साथ भी हेरा-फेरी की बातें करती है। उपरोक्त पूज्य बनावटी देवी तथा पेड़-पौधों से मन्नत माँगते समय दक्षिणा के रूप में सवा रूपया (एक रूपया और चार आने) अपनी चुनरी के पल्ले से बाँधकर कहती है कि यदि मेरी सब मनोकामना पूरी हो गई तो सवा रूपये का प्रसाद बाँटूगी। यह दक्षिणा भी तब दँूगी, जब सारी मन्नत पूरी हो जाऐंगी। यदि एक भी ना हुई तो कोई दक्षिणा नहीं दी जाएगी।