तत्वज्ञान के अभाव से साधकों की दुर्दशा (Plight of Devotees due to lack of Core Knowledge)

श्री विष्णु पुराण प्रथम अंश के अध्याय 1 श्लोक 12 से 21 तक पृ ष्ठ 2 पर लिखा है:-

श्री पराशर जी के पिता श्री शक्ति ऋषि को ऋषि विश्वामित्र की प्रेरणा से राक्षसों ने खा लिया था। श्री पराशर ने राक्षसों को नष्ट करने के लिए एक यज्ञ प्रारम्भ किया। जिसमें सैकड़ों राक्षस जल कर नष्ट हो गए। तब श्री पराशर जी के दादा श्री वशिष्ठ जी ने पाराशर को समझाया बेटा तुम्हारे पिता जी के लिए तो ऐसा ही होना था। क्रोध तो मूर्खों को ही हुआ करता है, विचारवानों को भला कैसे हो सकता है? हे प्रियवर! क्रोध तो मनुष्य के अत्यन्त कष्ट से संचित यश और तप का भी प्रबल नाशक है। हे तात! इस लोक और परलोक दोनों को बिगाड़ने वाले क्रोध का महर्षिगण सर्वदा त्याग करते हैं। इसलिए तू इसके वशिभूत मत हो। अपने इस यज्ञ को समाप्त करो। साधुओं का धन जो सदा क्षमा ही है। महात्मा दादा जी के इस प्रकार समझाने पर श्री पराशर जी ने वह राक्षसों को नष्ट करने वाला यज्ञ समाप्त कर दिया।

फिर श्लोक 22 से 31 तक में पृष्ठ 2-3 पर लिखा है कि ऋषि पुलस्त्य व महर्षि वशिष्ठ जी का कहा हुआ ज्ञान उन्हीं के आशीर्वाद से मुझे (पाराशर को) याद आ गया। ऋषि पाराशर जी ने अपने शिष्य मैत्रोय ऋषि जी को यह विष्णु पुराण सुनाया। हे मैत्रोय! यह जगत् विष्णु से उत्पन्न हुआ है। उन्हीं में स्थित है वे ही इसकी स्थिति और लय के कर्ता है। यह जगत् भी वे ही हैं।

विष्णु पुराण के चतुर्थ अंश के अध्याय 5 के श्लोक 1 से 10 तक में पृृष्ठ 252 पर लिखा है कि:-

इक्ष्वाकु का जो निमि नामक पुत्र था। उसने एक सहò (एक हजार) वर्ष तक लगातार यज्ञ करने का निर्णय लिया। इसके लिए श्री वशिष्ठ ऋषि को होता होने की प्रार्थना की। वशिष्ठ जी ने कहा मैंने इन्द्र को यज्ञ करने की स्वीकृृति दे रखी है। वह यज्ञ पांच सौ वर्षों तक चलेगा। उसके पश्चात् मैं तेरा ऋत्विक् (होता) हो जाऊँगा। उनके ऐसा कहने पर राजा निमि ने कोई उत्तर नहीं दिया। वशिष्ठ जी ने यह समझ कि राजा ने उनका कथन स्वीकार कर लिया है। इन्द्र का पाँच सौं वर्षों में समाप्त होने वाला यज्ञ प्रारम्भ कर दिया। किन्तु राजा निमि ने भी ऋषि गौतम आदि अन्य होताओं से अपना यज्ञ प्रारम्भ करा दिया।

इन्द्र का यज्ञ समाप्त करके वशिष्ठ मुनि राजा निमि के घर आए तो वहाँ पर गौतम ऋषि को होता का कर्म करते देख कर वशिष्ठ ऋषि ने राजा निमि को शाप दे दिया कि तेरी मृत्यु होगी। उस समय राजा निमि सो रहा था। जागने पर पता चला कि वशिष्ठ ने मेरी मृृत्यु का शाप दिया है। राजा ने वशिष्ठ ऋषि को शाप दे दिया कि तेरी भी मृत्यु होगी। दोनों की मृत्यु हो गई। वशिष्ठ मुनि का लिंग शरीर मित्रवरूण के वीर्य में प्रविष्ट हुआ। एक उर्वशी को देखने से मित्रवरूण का वीर्य स्खलित हुआ। जो पास एक घड़ें में गिरा उस घड़े से वशिष्ठ वाली आत्मा को पुनः शरीर प्राप्त हुआ।

इस प्रकार वशिष्ठ ने पुनर् शरीर धारण किया। विष्णु पुराण के चतुर्थ अंश के अध्याय 4 श्लोक 38 से 72 तक में पृृष्ठ 247 से 249 पर उपरोक्त विवरण लिखा हैं। एक इक्ष्वाकु वंश में मित्रसह नामक राजा था। उसने वशिष्ठ जी जो कि उसका कुल गुरु था, से यज्ञ कराया। एक मृग रूपधारी राक्षस को राजा ने जंगल में मारा था। वह राक्षस रूप धारकर मृत्यु को प्राप्त हुआ था। उस राक्षस का साथी भी वहीं मृृग रूप धारण किए था। उसने अपने साथी का बदला लेने की कसम खाई तथा अन्र्तध्यान हो गया। यज्ञ के सम्पूर्ण होने पर वशिष्ठ जी घुमने के लिए बाहर गए। पीछे से वह मृृग राक्षस वशिष्ठ का रूप धारण करके आया तथा राजा मीत्रसह (सौ दास) से बोला मेरे खाने के लिए नर मांस तैयार कराओ में अभी आता हूँ। राजा ने आज्ञा का पालन किया। वशिष्ठ जी के आने पर राजा ने उन्हें नर मांस सोने के पात्र में रख कर दिया। ऋषि वशिष्ठ ने सोचा इस राजा को मान हो गया है इसलिए इसने मेरे को जानबूझ कर नर मांस खाने को दिया है। तब वशिष्ठ जी ने क्रोध के कारण क्षुब्धचित होकर राजा को शाप दे दिया कि तू राक्षस हो जाएगा तथा नर मांस खाया करेगा। राजा ने कहा गुरु जी आपने ही तो कहा था नर मांस तैयार करने को। तब वशिष्ठ जी ने ध्यान द्वारा सर्व कारण जानकर राजा को निर्दोष जानकर कहा तूने केवल बारह वर्ष नर मांस खाना होगा अर्थात् 12 वर्ष राक्षस रहेगा। फिर ठीक हो जाएगा। तब तक राजा शिष्य ने अपने गुरु को शाप देना चाहा तब उसकी पत्नी के कहने पर शाप नहीं दिया। एक दिन एक ब्राह्मण ऋषि अपनी पत्नी से विलास कर रहा था। उस राजा से राक्षस बने मित्रसह राक्षस ने उसको खा लिया। ब्राह्मणी के कहने से भी नहीं छोड़ा तो ब्राह्मणी ने राजा को शाप दे दिया कि तू जब भी अपनी पत्नी का संग करेगा। उसी दिन तेरी मृृत्यु हो जाएगी। बारह वर्ष पश्चात् जब राजा शाप मुक्त हुआ। अपनी पत्नी का संग करना चाहा तो रानी ने उसे ब्राह्मणी का शाप याद दिलाया राजा ने उसी दिन से स्त्राी-सम्भोग त्याग दिया। राजा पुत्रहीन था। कुल गुरु वशिष्ठ ऋषि ने उसकी पत्नी के गर्भाधान किया। जिससे उसकी पत्नी ने अश्मक नामक पुत्र को जन्म दिया। उसी वशिष्ठ जी के वीर्य से उत्पन्न अश्मक से ही आगे उसी कुल में राजा दशरथ तथा श्री रामचन्द्र, लक्ष्मण, भरत आदि उत्पन्न हुए। श्री विष्णु पुराण श्लोक 73 से 94 तक पृृष्ठ 249-250 पर।

समीक्षा:- परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ जी ने कहा है -

पंडित और मसालची, दोनों सूझें नाय। औरन को करें चानना, रहें आप अंधेरे माय।।

अनुवाद:- स्वसम वेद की वाणी का:- परमेश्वर कबीर जी कह रहे हैं मसालची (पुराने समय में नाटक मण्डली को रात्री में रोशनी के लिए एक तीन फुट लम्बे दण्ड/डण्डे के एक सिरे पर कपड़ा लपेट कर उसके ऊपर मिट्टी का तेल डालकर प्रज्वलित करते थे। उसे एक व्यक्ति हाथ से पकड़ कर अपने हाथ को ऊपर उठाए रखता था। ताकि दूर तक रोशनी हो जाए। उस कारण से उस मसाल पकड़े हुए व्यक्ति अर्थात् मसालची के ऊपर अन्धेरा रहता था। अन्य के ऊपर प्रकाश रहता है। इसी की तुलना पंडित अर्थात् विद्वान से की है कहा है कि पंडित अन्य को सद्उपदेश देता है परन्तु स्वयं उस का अनुशरण नहीं करता)

उपरोक्त विष्णु पुराण के लेख में श्री वशिष्ठ जी पंडित अपने पौत्र पाराशर को कह रहे हैं कि पंडित को क्रोध नहीं करना चाहिए। क्रोध तो मुर्खों को ही हुआ करता है। विचारवानों (पंडितों) को भला कैसे हो सकता है। क्रोध तो मनुष्य के तप और यश को नष्ट कर देता है। स्वयं वशिष्ठ जी ने अपने उपदेश का अनुशरण नहीं किया। पृृष्ठ 252 के उपरोक्त लेख में ‘‘राजा निमि को ऋषि गौतम से यज्ञ कराते देख कर अति क्रोधित होकर वशिष्ठ जी ने राजा निमि को मृृत्यु का शाप दे दिया। जिससे राजा की मृृत्यु हो गई। इसी प्रकार पृृष्ठ 247 से 249 पर राजा मित्रसह (सौदास) को क्रोध वश शाप दे दिया कि तू राक्षस होगा। मनुष्य का मांस खाएगा।

उपरोक्त विवरण के मंथन से निष्कर्ष निकला कि -

कबीर, कहते हैं करते नहीं, मुह से बड़े लबार। जमपुर धक्के खाऐंगे, धर्मराय दरबार।।
कबीर, करनी तज कथनी कथें, अज्ञानी दिन रात। कुकर ज्यूं भौंकत फिरें, सुनि-सुनाई बात।।

उपरोक्त दोनों साखियों का भावार्थ है कि एक-दूसरे से ज्ञान ग्रहण करके ज्ञानी (पंडित) बनकर अन्य को शिक्षा देते फिरते हैं स्वयं अनुशरण नहीं करते। जैसे कुत्ता भौंकता फिरता है। ऐसे उस पंडित की स्थिति हो जा स्वयं ज्ञान का अनुशरण नहीं करता। फिर वह जमपुर अर्थात् यमलोक में नरक में गिरता है। ऐसी स्थिति महर्षि वशिष्ठ जी व पाराशर जी आदि ऋषियों की है।

उपरोक्त विवरण में यह भी लिखा है कि वशिष्ठ जी की मृृत्यु राजा निमि के शाप से हो गई थी। वशिष्ठ का लिंग शरीर मित्रवरूण के वीर्य में प्रविष्ठ हुआ। उर्वशी को देखने से मित्रवरूण का वीर्य स्खलित हुआ। उस से वशिष्ठ जी को पुनर् शरीर प्राप्त हुआ। कबीर परमेश्वर द्वारा बताए तत्वज्ञान के आधार से सन्त गरीबदास जी ने कहा है।

लिंग शरीर मोक्ष नहीं भाई। आगे जा कर देह उठाई।

भावार्थ है कि जिस साधक का सूक्ष्म शरीर साधना से चार्ज (शक्ति युक्त) हो जाता है। वह लिंग शरीर बन जाता है। जिस कारण से उसके मानव शरीर का समय अधिक बन जाता है। किसी कारण से मृृत्यु हो जाती है तो फिर मानव शरीर प्राप्त हो जाता है। उसमें भक्ति से संचित शक्ति भी विद्यमान रहती है। वह व्यक्ति फिर किसी को शाप देकर किसी को आशीर्वाद देकर अपने पूर्व संचित भक्ति धन को नष्ट कर जाता है। अनुयाईयों को शास्त्राविरूद्ध साधना बता कर पाप का भागी हो जाता है। जिस कारण से उसकी बैट्री डिस्चार्ज (भक्ति शक्ति रहित शरीर हो जाता है) हो जाती है। जिस कारण से चैरासी लाख प्राणियों के शरीरों में कष्ट उठाता है, फिर नरक में गिरता है क्योंकि लिंग शरीर बनने मात्र से मोक्ष नहीं होता। वह मोक्ष मार्ग तो तत्वज्ञान द्वारा पूर्ण सन्त (तत्वदर्शी सन्त) से सारनाम प्राप्त करके ही सम्भव है अन्यथा नहीं। जो ऋषियों व देवताओं, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवजी को भी नहीं मिला, वह तत्वज्ञान व वास्तविक मोक्ष प्राप्ति का मार्ग परमेश्वर कबीर जी के व पूज्य गुरुजी के आशीर्वाद से मुझ दास (रामपाल दास) के पास हैं। निःशुल्क प्राप्त करें। इसलिए परम पूज्य कबीर परमेश्वर जी कहते हैं:-

सुर नर मुनि जन तैतीस करोड़ी, बन्धे सभी निरंजन डोरी।

भावार्थ:- तैतीस करोड़ देवता, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव सहित सर्व तत्वज्ञान के अभाव से ब्रह्म तक की भक्तिकरके इसी से मिलने वाला अल्प लाभ प्राप्त करके इसी निरंजन (काल) की डोरी अर्थात् परम्परा से बंधे हैं। उनको पूर्ण परमात्मा की भक्ति के पूर्ण मोक्ष मार्ग का ज्ञान नहीं है।

निष्कर्ष:- सूक्ष्मवेद के ज्ञान के अभाव से परमात्मा प्राप्ति नहीं हुई। जिस कारण से ऋषिजन रिद्धि-सिद्धियों में लिप्त हो गए। किसी को सिद्धि से लाभ किसी को हानि करके धन उपार्जन करने लगे। उसका बिगड़ा रूप जंत्र-मंत्र बन गया है। जैसे वर्तमान में तांत्रिक तथा भूत-प्रेत विद्या जानने वालों के पास लोग जाते हैं। कहते हैं कि मेरे दुश्मन को हानि कर दो तो जो माँगोगे, वही दूँगा। कोई भूत-प्रेत से पीछा छुड़वाने के लिए स्याणों (भूत विद्या जानने वालों) के पास जाकर धन लुटाते हैं। किसी ने पीपल पूजा करना बता दिया तो वह करने लगे। किसी ने जांडी वृक्ष की पूजा करने से लाभ बताया। किसी ने तुलसी के पौधे की पूजा का विधान दृढ़ कर दिया। किसी तांत्रिक ने वैष्णव देवी मंदिर में जाने को कह दिया। किसी ने केदार नाथ, पशुपति आदि धामों की पूजा बता दी। दुःखी व्यक्ति ये सब करने लगे। इस प्रकार अंध श्रद्धा भक्ति का जन्म हुआ जो वर्तमान में गहरी जड़ें जमा चुका है। अंध श्रद्धा भक्ति षड़यंत्र के तहत काल ब्रह्म ने प्रारम्भ कराई है। वह गुप्त रूप से कार्य करता है। जैसे शिवलिंग पूजा के लिए श्री ब्रह्मा जी तथा श्री विष्णु जी को भी भ्रमित कर दिया। ब्रह्मा-विष्णु भी लिंग पूजा करने लगे। इस प्रकार भ्रमित होकर सर्व ऋषि तथा श्रद्धालु करने लगे।

अब जानें काल ब्रह्म का यह षड़यंत्र:-

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