शास्त्रों की स्थिति (State of Scriptures)

संसार की उत्पत्ति के पश्चात् परम अक्षर ब्रह्म यानि परमेश्वर ने क्षर पुरूष यानि काल ब्रह्म (जिसे ज्योति स्वरूप निरंजन तथा क्षर पुरूष भी कहते हैं) को उसके तप के प्रतिफल में इक्कीश ब्रह्माण्ड का राज्य दिया। काल ब्रह्म ने सनातन परम धाम यानि सतलोक (सच्चखण्ड) में एक भयंकर गलती की। देवी दुर्गा जी ने तथा हम सबने भी वहाँ पर गलती की। जिस कारण से इसको तथा इसकी पत्नी देवी दुर्गा तथा हम सब प्राणियों सहित इसके इक्कीश ब्रह्माण्डों सहित सतलोक से निकाल दिया। इसके इक्कीश ब्रह्माण्ड हम सबको साथ लिए सतलोक से सोलह (16) संख कोस यानि 48 संख किलोमीटर की दूरी पर आ गए। क्षर पुरूष यानि काल ब्रह्म से पहले परमेश्वर (सत पुरूष) ने अक्षर पुरूष यानि परब्रह्म की उत्पत्ति की थी। उसको सात संख ब्रह्माण्ड का क्षेत्र दिया था। सतपुरूष यानि परमेश्वर को परम अक्षर पुरूष या परम अक्षर ब्रह्म भी कहा जाता है। इन तीनों पुरूषों (क्षर पुरूष, अक्षर पुरूष तथा परम अक्षर पुरूष) का वर्णन गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में स्पष्ट है। श्लोक 17 में परम अक्षर पुरूष की महिमा बताई है। (अधिक व सम्पूर्ण जानकारी के लिए कृपा पढ़ें ‘‘सृष्टि रचना’’ अध्याय में इसी पुस्तक के पृष्ठ 208 पर।)

क्षर पुरूष केवल इक्कीश ब्रह्माण्डों का स्वामी है:- यह क्षर पुरूष यानि काल ब्रह्म है। एक ब्रह्माण्ड में तीन लोक विशेष प्रसिद्ध हैं:- 1) पृथ्वी लोक, 2) स्वर्ग लोक, 3) पाताल लोक। इसके अतिरिक्त शिव लोक, विष्णु लोक, ब्रह्मा का लोक, महास्वर्ग लोक यानि ब्रह्म लोक, देवी दुर्गा का लोक, इन्द्र का लोक, धर्मराय का लोक, सप्तपुरी लोक, गोलोक, चाँद, सूर्य, नौ गृह, नौ लाख तारे, छयानवें करोड़ मेघ माला, अठासी हजार ऋषि मंडल, तेतीस करोड़ देव स्थान आदि-आदि विद्यमान हैं। जिसमें हम रह रहे हैं, यह काल ब्रह्म के इक्कीस ब्रह्माण्डों में से एक है। इस एक ब्रह्माण्ड का संचालक भी काल ब्रह्म (क्षर पुरूष) है।

पाँच ब्रह्माण्डों का एक महाब्रह्माण्ड है। एक ब्रह्माण्ड बीच में तथा अन्य चार इस बीच वाले ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करते रहते हैं। परिक्रमा करने वाले एक ब्रह्माण्ड में हम रह रहे हैं। जिस ब्रह्माण्ड में हम रह रहे हैं तथा एक जो मध्य वाला ब्रह्माण्ड है, वर्तमान में केवल इन्हीं दो ब्रह्माण्डों में जीव हैं। महाब्रह्माण्ड के बीच वाले ब्रह्माण्ड में जीव हैं। यह ज्ञान केवल क्षर पुरूष और देवी दुर्गा जी को ही है। अन्य मानते हैं कि वर्तमान में केवल इसी में जीव हैं, अन्य ब्रह्माण्डों में जीव नहीं हैं। जब इस ब्रह्माण्ड में प्रलय होगी, तब उन परिक्रमा करने वालों में से एक में सृष्टि क्रम शुरू होगा। काल ने प्रतिज्ञा कर रखी है कि मैं कभी किसी को अपने वास्तविक स्वरूप (काल रूप जो इसका असली चेहरा है) में दर्शन नहीं दूँगा। (प्रमाण:- गीता अध्याय 7 श्लोक 24.25) इसलिए यह अपने पुत्रों ब्रह्मा जी, विष्णु जी तथा शिव जी के रूप में अपने साधक को दर्शन देता है। जिस कारण से ऋषियों को साधना समय में जिस रूप में दर्शन हुए, उसी की महिमा कहनी शुरू कर दी। यह शिव पुराण में सदाशिव या महाशिव कहा जाता है। विष्णु पुराण में महाविष्णु तथा ब्रह्मा पुराण में महाब्रह्मा कहा गया है। इसी कारण से वर्तमान तक सब ऋषिजन भ्रम में पड़कर रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव जी को सर्वेस्वा मानने लगे क्योंकि ऋषिजनों ने वेदों को पढ़ा। (उस समय पुराणों की रचना नहीं हुई थी। पुराण ऋषियों का अनुभव है और वेद ज्ञान यानि चारों वेद परमात्मा द्वारा दिए गए हैं।) वेदों में केवल एक अक्षर ओं (ओम्=ॐ) मंत्र है भक्ति करने का, अन्य कोई मंत्र मोक्ष का नहीं है। (प्रमाण:- यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 15 में।)

ऋषियों ने ॐ (ओम्) नाम का जाप किया जो ब्रह्म (काल ब्रह्म = क्षर पुरूष) का है। ब्रह्म (क्षर पुरूष) ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अपने वास्तविक रूप में दर्शन न देकर अपने पुत्रों (ब्रह्मा, विष्णु, शिव) के रूप में दर्शन देकर उनकी भक्ति के प्रतिफल का आशीर्वाद देकर अंतध्र्यान हो गए। किसी ऋषि को श्री ब्रह्मा जी के रूप में दर्शन दिए। उस ऋषि को विश्वास हो गया कि रजगुण ब्रह्मा जी जो सर्गुण देवता हैं, ये ही पूर्ण परमात्मा हैं।

ऋषियों को चारों वेदों का सम्पूर्ण ज्ञान नहीं था। (कारण आगे तुरंत बताऊंगा, उसी के लिए यह भूमिका लिख रहा हूँ कि ऋषियों को वेदों का ज्ञान ठीक से क्यों नहीं था।) उन्होंने वेदों में पढ़ा कि पूर्ण परमात्मा की भक्ति करने से मोक्ष मिलता है। जरा-मरण समाप्त हो जाता है। अन्य देवताओं (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव जी व अन्य देवी-देवता, ये सब अन्य देवताओं की श्रेणी में आते हैं) की भक्ति से पूर्ण मोक्ष संभव नहीं है। ऋषियों ने अज्ञानता के कारण पूर्ण परमात्मा की भक्ति व साधना का मंत्र ओं (ॐ) मान लिया तथा श्री ब्रह्मा जी से सुनकर हठयोग से तप भी साथ-साथ किया क्योंकि ब्रह्मा जी ने वेदों की प्राप्ति से पहले जब वे श्री विष्णु जी की नाभि से निकले, कमल पर युवावस्था में सचेत हुए तो क्षर पुरूष (काल ब्रह्म) ने आकाशवाणी की कि तप करो - तप करो। श्री ब्रह्मा जी ने एक हजार वर्ष तक तप किया। उसी हठपूर्वक तप को श्री ब्रह्मा जी ने पूर्ण परमात्मा के द्वारा की गई आकाशवाणी मान लिया जबकि यह आकाशवाणी क्षर पुरूष ने की थी जिसे ऋषिजन ब्रह्म कहते हैं। यह पूर्ण परमात्मा नहीं है। पूर्ण परमात्मा तो परम अक्षर ब्रह्म है जिसका वर्णन गीता अध्याय 8 श्लोक 1 में किए अर्जुन के प्रश्न कि ‘‘तत् ब्रह्म क्या है?’’ के उत्तर में इसी अध्याय 8 के श्लोक 3 में गीता ज्ञान बोलने वाले ने दिया है कि ‘‘वह परम अक्षर ब्रह्म है।’’ इसी का ज्ञान अध्याय 8 के श्लोक 8, 9, 10 तथा 20, 21, 22 में है तथा अध्याय 15 के श्लोक 4 तथा 17 में है। इसी की शरण में जाने के लिए गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 18 श्लोक 62 तथा 66 में कहा है। उसकी साधना का मंत्र गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में बताया है जिसकी भक्ति का ज्ञान तत्वदर्शी संत से प्राप्त करने को कहा है। (प्रमाण:- गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में) वह तत्वज्ञान न चारों वेदों में है, न ही गीता, पुराणों व उपनिषदों में है। वह सूक्ष्मवेद में है। (कारण आगे बताने जा रहा हूँ।)

ऋषियों ने अज्ञान आधार से हठ करके घोर तप तथा ओं (ॐ) मंत्र का जाप किया। उसी कारण से काल ब्रह्म ने किसी को विष्णु जी के रूप में साधक ऋषि को दर्शन दिए। उस ऋषि ने सतगुण विष्णु देवता को पूर्ण परमात्मा मान लिया क्योंकि वे ऋषिजन गलती से ॐ मंत्र का जाप पूर्ण परमात्मा का मान बैठे जो भूल वर्तमान तक लगी है। इसी प्रकार काल ब्रह्म ने अन्य ऋषि को तमगुण शिव देवता के रूप में दर्शन दिए तो उसने श्री शिव जी तमगुण को ही पूर्ण परमात्मा घोषित कर दिया। किसी ऋषि साधक को ब्रह्मा जी के रूप में दर्शन दिए तो उसने श्री ब्रह्मा जी रजगुण देवता को पूर्ण परमात्मा बताया। जिस कारण से इन्हीं तीनों देवताओं (ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव) में से दो देवताओं (श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी) तथा अन्य देवी-देवताओं की पूजा करने लगे। ऋषियों को पुराणों का ज्ञान श्री ब्रह्मा जी ने दिया। यह एक ही बोध था। ऋषियों ने अपने पिता, पितामह श्री ब्रह्मा जी से सुने पुराण ज्ञान में अपना अनुभव एक-दूसरे से सुनी कथाऐं मिला-मिलाकर अठारह पुराण बना दिए जिनमें वेदों का ज्ञान नाममात्र है। अधिक ज्ञान ऋषियों का अपना अनुभव जो भक्ति मार्ग यानि पूर्ण मोक्ष मार्ग में प्रमाण में नहीं लिया जा सकता यानि जो साधना करने की विधि पुराणों में ऋषियों द्वारा लिखी है और वह वेदों तथा वेदों के सारांश रूप श्रीमद्भगवत गीता से मेल नहीं करती तो वह शास्त्र विरूद्ध है। उस साधना को नहीं करना है। इन्हीं ऋषियों ने शास्त्र विरूद्ध साधना जैसे मूर्ति पूजा, श्राद्ध करना, पिण्ड दान करना, मंदिर बनवाना तथा उनमें मूर्ति स्थापित करना, उनमें प्राण प्रतिष्ठा करना, शिव लिंग की पूजा करना, अन्य देवी-देवताओं की पूजा ईष्ट रूप में करना, का प्रचलन किया जो न पवित्र वेदों में वर्णित है, न चारों वेदों का सारांश पवित्र गीता में वर्णित है। जो साधना वेदों तथा गीता में वर्णित नहीं है, वह नहीं करनी है क्योंकि वह शास्त्रविधि को त्यागकर मनमाना आचरण होने से व्यर्थ है।

आप जी को स्पष्ट हुआ कि पुराण ऋषियों कृत ज्ञान है जो वेदों की प्राप्ति के पश्चात् का है जो ऋषियों के अधूरे वेद ज्ञान का परिणाम है और भक्ति के योग्य नहीं है।

उपनिषद:- उपनिषद भी ऋषियों का अपना निजी अनुभव है। पुराणों में जिस ऋषि ने पुराण का ज्ञान किसी जन-समूह को प्रवचन करके बताया। उसमें अपना अनुभव तथा अन्य किसी से सुना ज्ञान भी मिलाया है। परंतु उपनिषद एक ऋषि का अपना अनुभव है। उसी के नाम से उपनिषद प्रसिद्ध है। जैसे कठोपनिषद यानि कठ ऋषि द्वारा लिखा अपना अनुभव, यह उपनिषद है। यदि उपनिषदों का ज्ञान वेद विरूद्ध है तो वह भी अमान्य है। भक्ति व साधना में प्रयोग करने योग्य नहीं है।

शास्त्रों की स्थिति बताई जा रही है:- पुराणों तथा उपनिषदों की स्थिति का वर्णन कर दिया है।

चारों वेदों की स्थिति:- जिस समय क्षर पुरूष (काल ब्रह्म यानि ज्योति स्वरूप निरंजन काल) को हमारे सहित इक्कीश ब्रह्माण्डों को सतलोक से दूर भेज दिया, उसके पश्चात् काल ब्रह्म ने अपनी पत्नी देवी दुर्गा (अष्टंगी) से विलास करके तीन पुत्रों (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु तथा तमगुण शिव) को उत्पन्न किया। श्री दुर्गा देवी जी ने अपने वचन से तीन युवा लड़की उत्पन्न की। उनका नाम सावित्री, लक्ष्मी और पार्वती रखा। इनका विवाह क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव से कर दिया। इसके पश्चात् काल ब्रह्म (क्षर पुरूष) के इक्कीश ब्रह्माण्डों में जीव उत्पन्न होने व मरने का सिलसिला प्रारम्भ हो गया।

पूर्ण परमात्मा को ज्ञान था कि जो आत्मा अपनी गलती से काल ब्रह्म (क्षर पुरूष) के साथ गए हैं, वे वहाँ पर महाकष्ट उठाऐंगे। पुनः सुख स्थान यानि सतलोक (सनातन परम धाम) में आने के लिए यथार्थ साधना की आवश्यकता पड़ेगी तथा उनको ज्ञान होना चाहिए कि तुम किस कारण से इस काल लोक में जन्म-मर रहे हो? कुत्ते, गधे, पक्षी आदि का जीवन क्यों भोग रहे हो? इस जन्म-मरण के संकट से मुक्ति कैसे मिलेगी? इस विषय का सम्पूर्ण वेद ज्ञान यानि सूक्ष्मवेद पूर्ण परमात्मा (परम अक्षर ब्रह्म) ने अपनी आत्मा से क्षर पुरूष (काल ब्रह्म) की आत्मा में ई-मेल कर दिया। कुछ समय बाद वह सम्पूर्ण वेद ज्ञान (सूक्ष्मवेद) काल ब्रह्म (ज्योति स्वरूप निरंजन यानि क्षर पुरूष) की श्वासों द्वारा बाहर प्रकट हुआ। जैसे कम्प्यूटर द्वारा प्रिंटर को कमांड देते ही मैटर स्वतः बाहर आ जाता है। परम अक्षर पुरूष के कमांड देने से काल ब्रह्म की आत्मा से श्वासों द्वारा पूर्ण वेद बाहर आया। क्षर पुरूष ने उस सूक्ष्म वेद को पढ़ा तो इसने हमारे साथ धोखा किया। इसको लगा कि यदि इस ज्ञान का तथा समाधान का मेरे साथ आए प्राणियों को पता लग गया तो ये सब सत्य साधना करके मेरे लोक से सतलोक (सनातन परम धाम) में चले जाऐंगे। इसने उस सम्पूर्ण वेद को कांट-छांट करके विशेष ज्ञान नष्ट कर दिया। केवल वह प्रकरण व साधना वाला ज्ञान भक्ति का वर्णन रख लिए जिससे जन्म-मरण बना रहे और मानव जीवन प्राप्त प्राणी शेष बचे अधूरे वेद का ज्ञान रखें और भ्रम बना रहे कि हम पूर्ण परमात्मा की भक्ति कर रहे है, परंतु वे मंत्र काल ब्रह्म की साधना के होने के कारण इनका जन्म-मरण, स्वर्ग-नरक सदा बना रहेगा और मेरे लोक में फँसे रहेंगे। ऐसा विचार करके काल ब्रह्म ने अधूरा वेद ज्ञान समुद्र में छुपा दिया। गुप्त रूप से अपनी पत्नी देवी दुर्गा को संदेश दिया कि इन तीनों पुत्रों (ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव) को सागर मंथन के लिए भेज दे। मैंने सब व्यवस्था कर दी है। एक ज्ञान निकलेगा, उसे मेरा बड़ा पुत्र ब्रह्मा प्राप्त करे। उसके पश्चात् अन्य को वह ही बताए। ऐसा ही किया गया। सागर मंथन में वेद ब्रह्मा जी को मिले जिनमें पूर्ण अध्यात्म ज्ञान तथा पूर्ण मोक्ष प्राप्त करने की विधि नहीं है। केवल स्वर्ग-महास्वर्ग (ब्रह्मलोक) तक प्राप्ति की भक्ति विधि वर्णित है। उस कारण से सब प्राणी उस सनातन परम धाम को प्राप्त नहीं कर पा रहे जिसके विषय में गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में बताया है। उस परमेश्वर का स्पष्ट ज्ञान शेष बचे वेद में नहीं है। इसलिए गीता अध्याय 4 श्लोक 32 में कहा है कि सम्पूर्ण अध्यात्म ज्ञान तथा धार्मिक यज्ञों (अनुष्ठानों) की सम्पूर्ण विधि का ज्ञान स्वयं (ब्रह्मणः मुखे वितताः) सच्चिदानंद घन ब्रह्म (परम अक्षर पुरूष) ने अपने मुख से बोली वाणी में विस्तार से बताया है। वह तत्वज्ञान (सूक्ष्मवेद) है। उसमें वर्णित विधि से सर्व पाप नष्ट हो जाते हैं और वह साधना अपने दैनिक कर्म (कार्य) करते-करते करने का प्रावधान है। (गीता अध्याय 4 श्लोक 32) (अधिक जानकारी के लिए पढ़ें इसी पुस्तक के पृष्ठ 59 पर ‘‘सूक्ष्मवेद का रहस्य’’ में।)

  • गीता अध्याय 4 श्लोक 34:- इसमें गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि जो तत्वज्ञान परमात्मा स्वयं प्रकट होकर पृथ्वी पर अपने मुख कमल से बोली वाणी में बताता है, उस ज्ञान को तू तत्वदर्शी संतों के पास जाकर समझ। उनको दण्डवत् प्रणाम करने से कपट छोड़कर नम्रतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म तत्व को भली-भांति जानने वाले ज्ञानी महात्मा उस तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे। (गीता अध्याय 4 श्लोक 34)

  • गीता अध्याय 15 श्लोक 4:- इसमें कहा है कि तत्वज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् अज्ञान को इस तत्वज्ञान रूपी शस्त्रा से काटकर यानि तत्वज्ञान को भली-भांति समझकर उसके पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में कभी नहीं आते। जिस परमेश्वर से संसार रूप वृक्ष की प्रवृति विस्तार को प्राप्त हुई है यानि जिस परमात्मा ने सर्व ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति की है, उसी परमेश्वर की भक्ति करो। (गीता अध्याय 15 श्लोक 4)

  • गीता अध्याय 18 श्लोक 62:- हे भारत! तू सर्व भाव से उस परमेश्वर की शरण में जा। उस परमेश्वर की कृपा से ही तू परम शांति यानि जन्म-मरण से सदा के लिए छुटकारा तथा (शाश्वतम् स्थानम्) सनातन परम धाम यानि सतलोक को प्राप्त करेगा।

विशेष:- वह तत्वज्ञान गीता बोलने वाले को भी नहीं है। यदि ज्ञान होता तो एक अध्याय और बोल देता। कह देता कि उस अध्याय में पढ़ें। इससे स्वसिद्ध है कि वह तत्वज्ञान गीता-वेद पढ़ने वालों के पास भी नहीं है।

पाठकजनो! गीता अध्याय 4 श्लोक 32 तथा 34 में कहे तत्वज्ञान को एकमात्र जानने वाला तत्वदर्शी संत यह दास (रामपाल दास) है। उस तत्वज्ञान को अपने मुख कमल से बोलने वाले परम अक्षर ब्रह्म कबीर जी हैं।

प्रश्न:- कौन कबीर? उत्तर (संत गरीबदास जी का):-

गरीब, हम सुलतानी नानक तारे, दादू को उपदेश दिया।
जाति जुलाहा भेद ना पाया, काशी मांहे कबीर हुआ।।
गरीब, अनन्त कोटि ब्रह्मण्ड का, एक रति नहीं भार।
सतगुरू पुरूष कबीर हैं, कुल के सिरजनहार।।

शब्दार्थ:- संत गरीबदास जी गाँव-छुड़ानी जिला-झज्जर (हरियाणा) वाले को दस वर्ष की आयु में खेतों में गाय चराते समय फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष (चांदनी) द्वादशी को सुबह लगभग दस बजे परम अक्षर ब्रह्म सतलोक से नीचे आकर जिंदा बाबा के वेश में मिले थे। उनकी आत्मा को श्री नानक जी (सिक्ख धर्म के प्रवर्तक) की तरह ऊपर सतलोक लेकर गए थे। श्री दादू जी को भी वही परम अक्षर ब्रह्म जिंदा बाबा के रूप में मिले थे। उनकी आत्मा को भी सतलोक लेकर गए थे। फिर सबको पुनः शरीर में प्रवेश किया था। उन महात्माओं ने परमात्मा के सनातन परम धाम तथा परम अक्षर ब्रह्म को आँखों देखा और संसार में उसके साक्षी बने। संत गरीबदास जी को दस वर्ष की आयु में सन् 1727 (विक्रमी संवत् 1784) में मिले थे। श्री नानक जी तथा श्री दादू जी को पहले मिले थे। इसलिए संत गरीबदास जी ने स्पष्ट कहा कि जो पूर्ण परमात्मा मुझे मिला था, उसी ने श्री नानक जी तथा श्री दादू जी को प्रकट दर्शन देकर सत्य भक्ति व ज्ञान बताकर संसार से पार किया था। वह और कोई नहीं है, वह वही है जो काशी में कबीर जुलाहे के नाम से प्रकट हुआ था। उस परमेश्वर ने समय-समय पर सतलोक से पृथ्वी पर प्रकट होकर तत्वज्ञान अपने मुख कमल से बोल-बोलकर अपनी अमृतवाणी में कहा है जो लिखी जाती है और जो सूक्ष्मवेद (तत्वज्ञान) यानि सम्पूर्ण वेद ज्ञान है।

इस सूक्ष्मवेद में चारों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद) वाला ज्ञान यानि सूक्ष्म से लिया अधूरा ज्ञान तथा इन्हीं चारों वेदों का सारांश रूप श्रीमद्भगवत गीता वाला ज्ञान तो है ही तथा जो काल ब्रह्म ने नष्ट कर दिया था, वह ज्ञान भी है। इस दास (रामपाल दास) के पास सूक्ष्म वेद के ज्ञान वाले सम्पूर्ण मोक्ष प्राप्ति की साधना के शास्त्रोक्त मंत्र हैं। इनकी साधना करने से मन बुराईयों से परहेज करने लगता है। चोरी-डाका, हत्या, हिंसा, भ्रष्टाचार, बलात्कार, सर्व प्रकार के नशे से अपने आप ग्लानि होने लगती है। आत्मा निर्मल हो जाती है। हृदय में दया का संचार होने लगता है। आवश्यकता से अधिक धन संग्रह करने या बड़े-बड़े मकान आदि बनाने की रूचि नहीं रहती। उसकी पूर्ण इच्छा परमात्मा के उस सनातन परम धाम (सतलोक) को प्राप्त करने तथा सदा के लिए जन्म-मरण से छुटकारा पाने की हो जाती है। इसलिए मेरे (लेखक) से दीक्षा लेकर मर्यादा में रहकर साधना करने से परमेश्वर का वह परम पद प्राप्त होता है जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में नहीं आते यानि (शाश्वतं स्थानं) सनातन परम धाम (सतलोक) तथा परम शांति प्राप्त हो जाती है जिसके विषय में गीता अध्याय 18 श्लोक 62 तथा गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है।

गीता अध्याय 8 के श्लोक 8ए 9ए 10 में गीता का ज्ञान बोलने वाले ने स्वयं कहा है कि उस दिव्य परम पुरूष यानि परम अक्षर ब्रह्म की भक्ति करने वाला उस परम पुरूष परमेश्वर को प्राप्त होता है और गीता अध्याय 8 के ही श्लोक 5 तथा 7 में गीता ज्ञान दाता ने अपने विषय में कहा है कि मेरी भक्ति करेगा तो मुझे ही प्राप्त होगा। इसी अध्याय 8 के श्लोक 13 में कहा है कि मेरी भक्ति का केवल एक ओम् (ॐ) अक्षर है। ध्यान रहे गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5, अध्याय 10 श्लोक 2 में स्पष्ट कर रखा है कि हे अर्जुन! तेरे और मेरे अनेकों जन्म हो चुके हैं, आगे भी होते रहेंगे। इससे सिद्ध है कि गीता ज्ञान दाता स्वयं जन्मता-मरता है तो उपासक भी जन्मते-मरते रहेंगे।

ओं (ॐ) नाम के जाप से ब्रह्मलोक प्राप्त होता है यानि ॐ (ओं) मंत्र का जाप करने वाला साधक ब्रह्मलोक में चला जाता है। प्रमाण:- श्री देवी पुराण गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित के सातवें स्कंद में पृष्ठ 562-563 पर देवी दुर्गा जी ने हिमालय राजा को ब्रह्म उपदेश देते समय यह रहस्य बताया है।

गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में यह भी स्पष्ट है कि ब्रह्मलोक में गए साधक भी पुनरावर्ती में हैं यानि ब्रह्मलोक गए साधक भी अपना स्वर्ग समय पूरा करके पृथ्वी पर लौटकर आते हैं। यह पूर्ण मोक्ष नहीं है। ॐ (ओम्) नाम के जाप से ब्रह्मलोक प्राप्त होता है। पूर्ण मोक्ष के लिए गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में बताए तीन मंत्र का (ॐ, तत्, सत्) नाम स्मरण करने से (ब्रह्मणः) सच्चिदानंद घन ब्रह्म यानि परम अक्षर ब्रह्म की प्राप्ति होती है। गीता पाठकों ने गीता शास्त्र को पढ़ा है, समझा नहीं क्योंकि गीता अनुवादक गीता के गूढ़ सांकेतिक शब्दों को नहीं समझ सके। जो तीन मंत्र हैं:- ॐ (ओम्), तत्, सत्। ये गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में वर्णित तीनों पुरूषों (प्रभुओं) के हैं:-

  1. क्षर पुरूष (काल ब्रह्म) का ॐ (ओम्) नाम है जो प्रत्यक्ष है। काल ब्रह्म केवल 21 ब्रह्माण्डों का प्रभु है। यह नाशवान है। इसके लोक के सब प्राणी भी नाशवान हैं।
  2. अक्षर पुरूष (परब्रह्म) का तत् मंत्र है, यह सांकेतिक है। इसका यथार्थ मंत्र मेरे (लेखक के) पास है। यह प्रभु सात संख ब्रह्माण्डों का स्वामी है। यह भी नाशवान है। इसके लोक के सब प्राणी भी नाशवान हैं।
  3. परम अक्षर पुरूष (परम अक्षर ब्रह्म) का सत् मंत्र है। यह भी सांकेतिक है। यथार्थ मंत्र मेरे पास है क्योंकि सूक्ष्म वेद यानि तत्वज्ञान में इन मंत्रों के वास्तविक शब्द का उल्लेख है। सूक्ष्मवेद केवल लेखक (रामपाल दास) के पास है और उसको ठीक से समझा है। परम अक्षर पुरूष वास्तव में अविनाशी तथा पुरूषोत्तम व परमात्मा है। इसके लोक में सर्व जीवात्मा भी अविनाशी हैं। यही सबका पालनकर्ता परमेश्वर है।

मुझ दास को एक वैद्य मानकर अपने जन्म-मरण के दीर्घ रोग का उपचार निःशुल्क करवाऐं। जब तक संसार में रहोगे, आपकी प्रत्येक आवश्यक मनोकामना पूर्ण होंगी। यह बात यह दास (रामपाल दास) दावे व पूर्ण विश्वास के साथ कह रहा है। जो लाभ आप सबको साधकर यानि अनेकों देवी-देवताओं की भक्ति व मूर्ति, तीर्थों, धामों आदि की पूजा करके भी नहीं प्राप्त कर पाते, वे सब लाभ आप जी को ‘‘एकै साधै’’ यानि एक मूल रूप परम अक्षर ब्रह्म की साधना से मिल जाएगा। जैसे आम के पौधे की जड़ (मूल) की सिंचाई करने से पौधे के सर्व भाग (तना, डार, शाखाऐं, पत्ते) विकसित होकर पेड़ बनकर शाखाऐं फल देने लगती हैं। देखें सीधा रोपा हुआ पौधा इसी पुस्तक के पृष्ठ 151 पर। आप जी सब देवों की साधना कर रहे हैं। आपने भक्ति रूपी आम का पौधा उल्टा रोप रखा है जो नष्ट हो रहा है यानि अध्यात्म लाभ प्राप्त नहीं हो रहा। कृपा देखें उल्टे रोपे गए आम के पौधे का चित्र इसी पुस्तक के पृष्ठ 152 पर। इस विषय में सम्पूर्ण जानकारी आप जी पढ़ें इसी पुस्तक के पृष्ठ 147 पर ‘‘भक्ति किस प्रभु की करनी चाहिए? गीता अनुसार’’ में।

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