कबीर परमेश्वर जी की काल से वार्ता (Conversation between God Kabir and Kaal)
अब हम काल ब्रह्म के लोक में रह रहे हैं। आत्मा के ऊपर स्थूल सूक्ष्म आदि-आदि शरीर चढ़ाकर काल ने जीव बना दिए हैं। इसने जीव को भ्रमित किया है। पूर्ण परमात्मा जो आत्मा का जनक है, भुला दिया है। स्वयं को परमात्मा सिद्ध किए हैं। यह परमात्मा के अंश जीवात्मा को परेशान करता है ताकि परमात्मा दुःखी होए। यही मन रूप में प्रत्येक आत्मा के साथ रहता है। गलती करवाता है, दण्ड जीवात्मा भोगती है। जैसे शराब, अफीम, सुल्फा आदि-आदि नशे की लत लगवाना, बलात्कार (rape) करवाना और अन्य पाप करवाना। यह मन की प्रेरणा से काल करवाता है। जब आप जी लेखक (संत रामपाल) से दीक्षा लोगे, तब यह सीधा चलेगा क्योंकि जीवात्मा के साथ परमात्मा की शक्ति रहने लगती है। आत्मा को तत्वज्ञान से विवेक हो जाता है। परमात्मा की शक्ति के कारण आत्मा दृढ़ हो जाती है। काल ब्रह्म केवल कबीर परमात्मा से डरता है। संत गरीबदास जी ने कहा है:-
काल डरै करतार से, जय-जय-जय जगदीश। जौरा जोड़ी झाड़ता, पग रज डारे शीश।।
काल जो पीसे पीसना, जौरा है पनिहार। ये दो असल मजदूर हैं, सतगुरू कबीर के दरबार।।
भावार्थ स्पष्ट है। परमात्मा कबीर जी हमारी आत्मा को काल जाल से निकालने के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। काल ब्रह्म फँसाने का प्रयत्न करता है। आगे के प्रकरण में प्रत्यक्ष प्रमाण है।
सर्वप्रथम परमेश्वर ने सर्व ब्रह्मण्डों तथा प्राणियों की रचना की और अपने लोक में विश्राम करने लगे। उसके बाद हम सभी काल के ब्रह्मण्ड में रह कर अपना किया हुआ कर्मदण्ड भोगने लगे और बहुत दुःखी रहने लगे। सुख व शांति की खोज में भटकने लगे और हमें अपने निज घर सतलोक की याद सताने लगी तथा वहाँ जाने के लिए भक्ति प्रारंभ की। किसी ने चारों वेदों को कंठस्थ किया, उन्हें चतुर्वेदी कहा जाने लगा। किसी ऋषि ने तीन वेदों को कण्ठस्थ किया, उनको त्रिवेदी कहा जाने लगा। किसी ऋषि ने दो वेदों को कण्ठस्थ किया। उन्हें द्विवेदी कहा जाने लगा जिससे उनकी महिमा बन गई। कोई उग्र तप करने लगा और हवन यज्ञ, ध्यान, समाधि आदि क्रियाएं प्रारम्भ की, लेकिन अपने निज घर सतलोक नहीं जा सके क्योंकि उपरोक्त क्रियाएं करने से अगले जन्मों में अच्छे समृद्ध जीवन को प्राप्त होकर (जैसे राजा-महाराजा, बड़ा व्यापारी, अधिकारी, देव-महादेव, स्वर्ग-महास्वर्ग आदि) वापिस लख चैरासी भोगने लगे। बहुत परेशान रहने लगे और परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना करने लगे कि हे दयालु ! हमें निज घर का रास्ता दिखाओ। हम हृदय से आपकी भक्ति करते हैं। आप हमें दर्शन क्यों नहीं दे रहे हो?
यह वृतान्त कबीर साहेब ने धर्मदास जी को बताते हुए कहा कि हे धर्मदास! इन जीवों की पुकार सुनकर मैं अपने सतलोक से जोगजीत का रूप बनाकर काल लोक में आया। तब इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में जहाँ काल का निज घर है, वहाँ पर तप्तशिला पर जीवों को भूनकर सूक्ष्म शरीर से काल ब्रह्म के लिए खाद्य पदार्थ निकाला जा रहा था। (जैसे वर्तमान में एक ऐसा यंत्र बनाया है जिसमें मछलियों को डालकर उन पर विशेष दबाव बनाकर तेल निकाला जाता है। मछलियाँ मरती नहीं, परंतु दर्द बहुत होता है।) कबीर जी ने बताया कि मेरे पहुँचने के बाद उन जीवों की जलन समाप्त को गई। उन्होंने मुझे देखकर कहा कि हे पुरुष ! आप कौन हो? आपके दर्शन मात्र से ही हमें बड़ा सुख व शांति का आभास हो रहा है। तब मैंने बताया कि मैं पारब्रह्म परमेश्वर कबीर हूँ। आप सब जीव मेरे लोक से आकर काल ब्रह्म के लोक में फंस गए हो। यह काल रोजाना एक लाख मानव के सूक्ष्म शरीर से सूक्ष्म पदार्थ निकालकर खाता है और बाद में नाना-प्रकार की योनियों में दण्ड भोगने के लिए छोड़ देता है। तब वे जीवात्माएं कहने लगी कि हे दयालु परमेश्वर! हमें इस काल की जेल से छुड़वाओ। मैंने बताया कि ये 21 ब्रह्मण्ड काल ब्रह्म ने तीन बार तप करके मेरे से प्राप्त किए हुए हैं जो आप यहां सब वस्तुओं का प्रयोग कर रहे हो ये सभी काल की हैं और आप सब अपनी इच्छा से आए हो। इसलिए अब आपके ऊपर काल ब्रह्म का बहुत ज्यादा ऋण हो चुका है और वह ऋण मेरे सच्चे नाम के जाप के बिना नहीं उतर सकता।
जब तक आप ऋण मुक्त नहीं हो सकते, तब तक आप काल ब्रह्म की जेल से बाहर नहीं जा सकते। इसके लिए जिस समय आपको पृथ्वी पर मानव जीवन प्राप्त हो, उस समय आपको मुझसे नाम उपदेश लेकर भक्ति करनी होगी। तब मैं आपको छुड़वा कर ले जाऊंगा। हम यह वार्ता कर ही रहे थे कि वहां पर काल ब्रह्म प्रकट हो गया और उसने बहुत क्रोधित होकर मेरे ऊपर हमला कर दिया और बोला कि जोगजीत तू मेरे लोक में किसलिए आया? सतलोक से तो तुमने मेरे को मार-पीटकर निकाला था। अब मैं बदला लूँगा। तेरे को मारूँगा। हे धर्मदास! तब मैंने अपनी शब्द शक्ति से उसको मूर्छित कर दिया। फिर कुछ समय बाद वह होश में आया। मेरे चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगा और बोला कि आप मुझ से बड़े हो, मुझ पर कुछ दया करो और यह बताओ कि आप मेरे लोक में क्यों आए हो ? तब मैंने काल पुरुष को बताया कि कुछ जीवात्माएं भक्ति करके अपने निज घर सतलोक में वापिस जाना चाहती हैं। उन्हें सतभक्ति मार्ग नहीं मिल रहा है। इसलिए वे भक्ति करने के बाद भी इसी लोक में रह जाती हैं। मैं उनको सतभक्ति मार्ग बताने के लिए और तेरा भेद देने के लिए आया हूं कि तूं काल है, एक लाख जीवों का आहार करता है और सवा लाख जीवों को उत्पन्न करता है तथा भगवान बन कर बैठा है। मैं इनको बताऊंगा कि तुम जिसकी भक्ति करते हो वह भगवान नहीं, काल है। इतना सुनते ही काल बोला कि यदि सब जीव वापिस चले गए तो मेरे भोजन का क्या होगा ? मैं भूखा मर जाऊंगा। आपसे मेरी प्रार्थना है कि 1) तीन युगों में जीव कम संख्या में ले जाना और सबको मेरा भेद मत देना कि मैं काल हूँ, सबको खाता हूँ। जब कलियुग आए तो चाहे जितने जीवों को ले जाना। 2) अपना ज्ञान बताकर समझाकर जीव ले जाना। जोर-जबरदस्ती करके ना ले जाना। जो मानव आपके ज्ञान को स्वीकार करे, वह आपका। जो मेरे ज्ञान को स्वीकार करके साधना करे, वह मेरा।
इस प्रकार के कई वचन मेरे से लिए। (जिनका विवरण आगे के पृष्ठों पर किया है।)
ये वचन काल ने मुझसे प्राप्त कर लिए। कबीर साहेब ने धर्मदास को आगे बताते हुए कहा कि सतयुग, त्रोतायुग, द्वापरयुग में भी मैं आया था और बहुत जीवों को सतलोक लेकर गया लेकिन इसका भेद नहीं बताया। अब मैं कलियुग में आया हूं और काल से मेरी वार्ता हुई है। काल ब्रह्म ने मुझ से कहा कि अब आप चाहे जितना जोर लगा लेना, आपकी बात कोई नहीं सुनेगा। प्रथम तो मैंने जीव को भक्ति के लायक ही नहीं छोड़ा है। उनमें बीड़ी, सिगरेट, शराब, मांस आदि दुव्र्यसन की आदत डाल कर इनकी वृति को बिगाड़ दिया है। नाना-प्रकार की पाखण्ड पूजा में जीवात्माओं को लगा दिया है। दूसरी बात यह होगी कि जब आप अपना ज्ञान देकर वापिस अपने लोक में चले जाओगे तब मैं (काल) अपने दूत भेजकर आपके नाम (कबीर पंथ) से बारह पंथ चलाकर जीवों को भ्रमित कर दूँगा। और भी अनेक नकली पंथ अपने काल दूतों से चलाऊँगा। जिस कारण से वे महिमा तो सतलोक की बताएंगे, आपका बताया ज्ञान कथेंगे लेकिन नाम-जाप मेरा करेंगे, जिसके परिणामस्वरूप मेरा ही भोजन बनेंगे। यह बात सुनकर कबीर साहेब ने कहा कि आप अपनी कोशिश करना, मैं सतमार्ग बताकर ही जीवों को वापिस ले जाऊँगा और जो मेरा ज्ञान सुन लेगा, वह तेरे बहकावे में कभी नहीं आएगा।
सतगुरु कबीर साहेब ने कहा कि हे निरंजन ! यदि मैं चाहूं तो तेरे सारे खेल को क्षण भर में समाप्त कर सकता हूँ, परंतु ऐसा करने से मेरा वचन भंग होता है। यह सोच कर मैं अपने प्यारे हंसों को यथार्थ ज्ञान देकर शब्द का बल प्रदान करके सतलोक ले जाऊंगा और कहा कि:-
कह कबीर सुनो धर्मराया, हम शंखों हंसा पद परसाया।
जिन लीन्हा हमरा प्रवाना, सो हंसा हम किए अमाना।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि हे धर्मराय यानि काल ब्रह्म! जिन प्राणियों ने हमारा ज्ञान सुनकर दीक्षा ली, उन संखों भक्तों को हमने (मैंने तथा मेरे भेजे संतों ने) उस परम पद को प्राप्त कराया जहाँ जाने के पश्चात् कभी संसार में लौटकर नहीं आते। उनको (अमान) अमन-चैन यानि परम शांति प्रदान कर दी। काल ने फिर कहा कि:-
(पवित्र कबीर सागर में जीवों को भूल-भूलइयां में डालने के लिए तथा अपनी भूख को मिटाने के लिए तरह-2 के तरीकों का वर्णन)
द्वादस पंथ करूं मैं साजा, नाम तुम्हारा ले करूं अवाजा।
द्वादस यम संसार पठहो, नाम तुम्हारे पंथ चलैहो।।
प्रथम दूत मम प्रगटे जाई, पीछे अंश तुम्हारा आई।।
यही विधि जीवनको भ्रमाऊं, पुरुष नाम जीवन समझाऊं।।
द्वादस पंथ नाम जो लैहे, सो हमरे मुख आन समै है।।
कहा तुम्हारा जीव नहीं माने, हमारी ओर होय बाद बखानै।।
मैं दृढ़ फंदा रची बनाई, जामें जीव रहे उरझाई।।
देवल देव पाषान पूजाई, तीर्थ व्रत जप-तप मन लाई।।
यज्ञ होम अरू नेम अचारा, और अनेक फंद में डारा।।
जो ज्ञानी जाओ संसारा, जीव न मानै कहा तुम्हारा।।
(सतगुरु वचन)
ज्ञानी कहे सुनो अन्याई, काटों फंद जीव ले जाई।।
जेतिक फंद तुम रचे विचारी, सत्य शबद तै सबै बिंडारी।।
जौन जीव हम शब्द दृढावै, फंद तुम्हारा सकल मुकावै।।
चैका कर प्रवाना पाई, पुरुष नाम तिहि देऊं चिन्हाई।।
ताके निकट काल नहीं आवै, संधि देखी ताकहं सिर नावै।।
उपरोक्त विवरण से सिद्ध होता है कि जो अनेक पंथ चले हुए हैं। जिनके पास कबीर साहेब द्वारा बताया हुआ सतभक्ति मार्ग नहीं है, ये सब काल प्रेरित हैं। अतः बुद्धिमान को चाहिए कि सोच-विचार कर भक्ति मार्ग अपनांए क्योंकि मनुष्य जन्म अनमोल है, यह बार-बार नहीं मिलता। कबीर साहेब कहते हैं कि:-
कबीर मानुष जन्म दुर्लभ है, मिले न बारम्बार।
तरूवर से पत्ता टूट गिरे, बहुर न लगता डारि।।