श्रृंगी ऋषि तथा दशरथ पुत्री शांता की प्रेम कथा (Love Story of Shringi Rishi and Shanta)

{श्री तुलसी कृत रामायण में ‘‘बाल काण्ड’’ अध्याय में शांता का कुछ वर्णन है। चैपाईयों में श्री रामचन्द्र के विवाह के समय दुल्हन पक्ष की औरतों ने यंग (सीठणें) सुनाते हुए कहा है कि राम जी! तेरी बहन शांता ऋषि श्रृंगी के साथ भागकर गई थी या विवाह किया था। विवाह तो अपनी जाति में होता है। श्रृंगी ऋषि तो ब्राह्मण हैं।}

उदाहरण:- श्रृंगी ऋषि जी ने इन्द्रियों को वश में करके विषयों यानि काम (sex), क्रोध, मोह, अहंकार तथा लोभ को वश करने के उद्देश्य से कठिन साधना की तथा मान लिया कि मैंने पाँचों विकारों (रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द) पर नियंत्राण कर लिया। पूरे दिन में एक बार वृक्ष की छाल को जीभ लगाता था। उसी से तृप्त हो जाता था। एक समय अपनी भक्ति का प्रदर्शन करने के लिए श्रृंगी ऋषि अयोध्या के पास जंगल में एक वृक्ष की ओर मुख करके बैठ गया। दस दिन बीत गए। अयोध्या के धार्मिक व्यक्ति खीर-हलवा आदि का स्वादिष्ट भोजन बनाकर ले गए कि ऋषि जी साधना से उठेंगे तो भोजन खिलाऐंगे। परंतु श्रृंगी ऋषि दिन में एक बार वृक्ष के तने की छाल को चीभ से चाटता था। आँखें भी नहीं खोलता था और ध्यानमग्न हो जाता। ऋषि की चर्चा अयोध्या नगरी में दावानल की तरह फैल गई। राजा दशरथ को पता चला तो अपनी लड़की शांता तथा रानियों को साथ लेकर ऋषि के दर्शन करने गए, परंतु ऋषि ने आँखें नहीं खोली। बस एक बार जीभ से वृक्ष को चाटा। कई दिन ऐसे ही बीत गए। राजा दशरथ की लड़की युवा थी। उस समय तक श्री रामचन्द्र आदि पुत्रों का जन्म नहीं हुआ था। कौशल्या रानी से शांता बेटी के जन्म के पश्चात् लगभग 20 वर्ष तक कोई संतान किसी रानी को नहीं हुई थी। उस समय शांता युवा था। वह प्रतिदिन अपनी नौकरानियों के साथ ऋषि के दर्शन के लिए पिता दशरथ जी की आज्ञा लेकर जाने लगी। शांता ने एक वैद्य से पूछा कि ऋषि जी की समाधि कैसे खोलें? वह विधि बताऐं। वैद्य ने बताया कि वृक्ष के उस स्थान पर शहद का लेप कर दो जहाँ पर ऋषि जीभ से चाटता है। लड़की शांता ने वैसा ही किया। पहले ऋषि एक बार जीभ से चाटता था, उस दिन दो बार चाटा। अगले दिन फिर शहद लगाया गया। अगले दिन चार बार चाटा। तीसरे दिन फिर शहद लगाया। ऋषि जी ने बहुत देर तक चाटा और आँखें खोली। सामने देखा। शांता ने अपना परिचय दिया तथा भोजन खाने के लिए निवेदन किया। ऋषि ने केवल कुछ खीर खाई। राजा दशरथ ने ऋषि को अपने घर चलने के लिए निवेदन किया। ऋषि जी तुरंत सहमत हो गए। शांता बेटी को ऋषि की सेवा करने को कहा। शांता अपनी नौकरानियों से भोजन बनवाकर स्वयं ऋषि के पास ले जाकर खिलाती। बहुत देर तक परमात्मा की चर्चा करती थी। राजा दशरथ ने श्रृंगी ऋषि से संतान के लिए याचना की। ऋषि ने पुत्रा प्राप्ति के लिए एक यज्ञ करने की राय दी तथा कहा कि उस यज्ञ को मैं ही करूँगा तो आपको अवश्य पुत्रा प्राप्ति होगी। शुभ मुहूर्त देखकर छः महीने आगे का समय यज्ञ का रखा गया।

श्रृंगी ऋषि ने राजा दशरथ से कहा कि मैं आपकी पुत्राी शांता से विवाह करना चाहता हूँ। ऋषि की आयु चालीस वर्ष थी तथा शांता की आयु बीस वर्ष। राजा दशरथ की जाति क्षत्राीय तथा श्रृंगी ब्राह्मण जाति से थे। जिस कारण से राजा दशरथ धर्म संकट में फँसकर चिंतित रहने लगे। यदि मना कर दिया तो श्रृंगी ऋषि के श्राप देने का भय। शादी कर दी तो जाति वालों का भय। एक ऋषि ने राजा का संकट देखकर बीच का रास्ता निकाला। उस ऋषि ने शांता को गोद ले लिया तथा ऋषि श्रृंगी तथा शांता का विवाह कर दिया। श्रंृगी ऋषि शांता को लेकर वन में कुटी बनाकर रहने लगा।

कथा सार:- गीता अध्याय 4 श्लोक 26 का तात्पर्य है कि कुछ साधक कहते हैं कि जिन्होंने अपनी इन्द्रियों का दमन कर लिया, वही मुक्ति पाता है। उसी उद्देश्य से श्रृंगी ऋषि ने जंगल में साधना की और मान लिया था कि मैंने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया है। इसीलिए अयोध्या शहर के पास बैठकर अपनी सार्थकता का प्रदर्शन करने लगे थे। परंतु मार खा गए।

सूक्ष्मवेद में लिखा है:-

कुरंग मतंग पतंग श्रंग भृंगा, इन्द्री एक ठग्यो तिन अंगा।

शब्दार्थ:- पाँच विषय विकार हैं। (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध)

शब्द विषय:- शब्द यानि संगीत का आकर्षण कान के द्वारा शरीर में जाकर जीव को विवश करता है। शब्द विषय (विकार) का प्रभाव हिरण में अधिक होता है। मृग पकड़ने वाला जंगल में वाद्य यन्त्रा से संगीत की विशेष धुनि (ज्नदम) निकालता है जिसको सुनकर अपने शब्द विकार के वश हुआ कुरंग (मृग) शिकारी की ओर खींचा चला आता है और शिकारी के सामने बैठकर धुन (ज्नदम) का आनंद लेने लगता है। शिकारी उसे पकड़कर मारकर अपना धंधा चलाता है। हिरण एक विषय के वश होकर मर गया।

स्पर्श विषय:- स्पर्श यानि नर का मादा से मिलन (sex) का विकार शरीर से छेड़छाड़ करने से अधिक प्रभाव करता है। हाथी इस विषय के अधिक वश है। हाथी पकड़ने वाले जंगल में बीस फुट चैड़ी दस फुट गहरी तथा सौ फुट लम्बी खाई यानि गढ्ढ़ा खोदकर उसके ऊपर पतली-पतली लकड़ियाँ रखकर ताजा घास खोदकर लकड़ियों पर रख देते हैं। वह ऐसा लगता है जैसे पृथ्वी ही है। एक पूरी तरह ट्रैंड की गई हथनी को हाथियों के झुण्ड में भेजते हैं। वह हाथियों के शरीर से अपना शरीर स्पर्श करती है जैसे गर्भ धारण करने के समय हथनी हाथियों के शरीर से छेड़छाड़ करके प्रेरित करती है। वह कई हाथियों के साथ अपना शरीर रगड़कर वापिस चल देती है। जिन-जिन हाथियों से छेड़छाड़ की थी, वे काम-वासना के प्रभाव के कारण हथिनी से मिलन (sex) करने की इच्छा से पीछे-पीछे दौड़ लगाते हैं। हथिनी तेज दौड़कर उस गढ्ढ़े से बचकर बराबर से निकलकर गढ्ढ़े के मध्य में दूसरी ओर खड़ी हो जाती है। कामांध हाथी गढ्ढ़े को नहीं जाँचता। हवस पूर्ति के लिए सीधा चल पड़ता है और गढढ़े में गिरकर परवश हो जाता है। एक स्पर्श यानि काम-वासना विकार के कारण विवश होकर हाथी सदा के लिए पराधीन हो जाता है यानि शिकारी के जाल में फँस जाता है।

रूप विषय:- रूप विषय नेत्र इन्द्री से प्रभाव करता है जिसका विशेष दबाव पतंग कीट में होता है जो दीपक, मोमबत्ती पर रूप विकार से प्रभावित होकर उसे प्राप्त करने के उद्देश्य से जल मरता है। उसके वश की बात नहीं। वह नेत्रा इन्द्री के वश है।

रस विषय:- रस विषय जीभ इन्द्री से प्रभाव करता है। श्रंग (मछली) में रस विषय का प्रभाव अत्यधिक होता है। मछली पकड़ने वाले मच्छिहारे द्वारा लोहे के काँटे में माँस के टुकड़े को तालाब में डाला जाता है। मछली जीभ इन्द्री के वश होकर रस विषय से प्रभावित होकर उसे खाने के लिए अँधी होकर काँटे को नहीं देख पाती और अपने जीवन से हाथ धो बैठती है यानि काँटे में फँसकर मच्छिहारे के हाथों मर जाती है। वह रस विषय के कारण विवश है। मछली जीभ इन्द्री के वश है।

गंध विषय:- गंध विकार नासिका इन्द्री द्वारा जीव को प्रभावित करता है। भृंग (भंवरा) गंध विषय के कारण फुलवाड़ी में जाता है। फूल पर बैठकर सुगंध का आनंद लेने में मस्त हो जाता है। रात्रि के समय फूल बंद होने लगता है, परंतु भंवरा सुगंध लेने की धुन में फूल में बंद होकर मर जाता है। उस गंध से दूर नहीं होता। भंवरा प्राणी नासिका इन्द्री के वश है।

सूक्ष्मवेद में परमेश्वर कबीर जी ने समझाया है कि जो साधक शास्त्रविधि के विपरीत अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करके अपनी इन्द्रियों को विषयों (विकारों) से हटाने के लिए दमन करते हैं और इसी को अपनी अध्यात्म उपलब्धि तथा सफलता मानते हैं। यह उनको सम्पूर्ण अध्यात्म ज्ञान का अभाव के कारण भ्रम है क्योंकि:-

कुरंग मतंग पतंग श्रंग अरू भृंगा। इन्द्री एक ठगा तिस अंगा।।
तुम्हरे संग पाँचों प्रकाशा। योग युक्त की झूठी आशा।।

शब्दार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने सूक्ष्मवेद में समझाया है कि मृग, हस्थी, पतंग, मछली तथा भंवरे में तो एक-एक इन्द्री का प्रभाव है। जिस कारण वे धोखा खाते हैं। मर जाते हैं, बच नहीं पाते।

हे मानव (स्त्री-पुरूष)! आप में तो पाँचों विषयों का प्रबल प्रभाव है। इसलिए पाँचों इन्द्रियों को दमन करने का व्यर्थ प्रयत्न करते हो। समय आने पर आप इन इन्द्रियों के दोष से बच नहीं पाते हो। उस समय आपकी इन्द्रियों को साधने वाली मनमानी साधना व्यर्थ सिद्ध होती है। इसलिए शास्त्रविरूद्ध उपासना से योगयुक्त होने की आपकी झूठी आशा थी। ऊपर प्रमाण बताया है कि श्रृंगी ऋषि ने अन्न-जल त्यागकर अपने आपको योगयुक्त मान लिया। गीता अध्याय 6 श्लोक 16 में यही बताया है कि यह योग यानि परमात्मा मिलन की साधना न तो बिल्कुल न खाने वाले की, न अधिक खाने वाले की, न बिल्कुल न सोने वाले की, न अधिक सोने (शयन करने) वाले की सफल होती है। श्रृंगी ऋषि ने बिल्कुल न खाने तथा बिल्कुल न सोने वाली क्रिया हठयोग से की। गीता में बताई मर्यादा तोड़ने से असफल हुआ।

  1. श्रृंगी ऋषि अपनी जीभ इन्द्री यानि रस विकार के कारण शहद चाटने लगा।
  2. नेत्र इन्द्री यानि रूप के कारण शांता पर आसक्त (मोहित) हो गया। अपना उद्देश्य ही भूल गया।
  3. श्रवण इन्द्री यानि शब्द विषय से प्रभावित हुआ क्योंकि शांता महल के बाहर पार्क में मस्ती से घूमती थी और मधुर आवाज में गाने गाती थी। श्रृंगी ऋषि सुन-सुनकर कुर्बान हो गया।
  4. शांता सुगंधित तेल का प्रयोग करती थी। उससे भी ऋषि को आकर्षण हुआ।
  5. लड़की अपने शरीर के अंगों को ऋषि से जान-बूझकर अनजान बनकर स्पर्श करती थी। जिस कारण से श्रृंगी ऋषि लड़की को प्राप्त करने के लिए तड़फ गया। अपना उद्देश्य भूलकर शांता से विवाह कर लिया।

विचार करने की बात है कि वह वर्षों की साधना जो इन्द्रिय विषयों (विकारों) को समाप्त करने वाली का क्या प्रयोजन था, वह व्यर्थ थी, परंतु उसे मोक्षदायक तथा पापनाशक जानकर कर रहा था जो श्रृंगी ऋषि के आध्यात्मिक ज्ञान के टोटे का परिणाम था।

कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि इन्द्रियाँ मन के आधीन हैं। जब तक मन पर अंकुश नहीं लगेगा, तब तक इन्द्रियाँ वश करना तो दूर की कौड़ी है। कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती। मन पर अंकुश तत्वज्ञान (सूक्ष्मवेद) से लगता है। जिस ज्ञान का अभाव है। पूर्ण मोक्ष यानि जन्म-मरण तथा जरा (वृद्धावस्था) से छुटकारे में बाधा है।

वह सूक्ष्मवेद (तत्वज्ञान) स्वयं परमेश्वर (सच्चिदानंद घन ब्रह्म) पृथ्वी पर प्रकट होकर अपने मुख कमल से बोलकर वाणी द्वारा बताता है। जिसका वर्णन गीता के इसी अध्याय 4 श्लोक 32 तथा 34 में है। यह आगे बताया जाएगा। अब गीता अध्याय 4 के अन्य 27 से 30 श्लोकों का वर्णन करता हूँ।

  • गीता अध्याय 4 श्लोक 27:- इस श्लोक में कहा है कि अन्य साधक भी दसों इन्द्रियों यानि पाँच कर्म इन्द्रियों (हाथ, मुख, पैर, गुदा, लिंग) तथा पाँच ज्ञान इन्द्रियों (कान, जीभ, आँख, नाक, त्वचा) तथा प्राणों यानि श्वासों को साधने वाली क्रियाऐं करके उसी से संतुष्ट होते हैं तथा श्वासों पर आते-जाते ध्यान करके अपनी साधना सफल मानते हैं।
  • गीता अध्याय 4 श्लोक 28:- इस श्लोक में कहा है कि कई साधक द्रव्य यानि धन से होने वाली यज्ञ यानि धार्मिक अनुष्ठान करने मात्र से संतुष्ट है कि हमने पाप नाश कर लिए यानि इसी से मोक्ष हुआ मानते हैं। द्रव्य यज्ञ वह है जिसके तहत धार्मिक भोजन-भण्डारा यानि लंगर करना, गरीबों या संतों-भक्तों को कंबल, कपड़े बाँटना, प्याऊ लगवाना, धर्मशाला, कूऐं आदि बनवाना द्रव्य यज्ञ कही जाती है। (इसी के विषय में गीता अध्याय 4 श्लोक 33 में कहा है कि द्रव्य यज्ञ से ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ है।) गीता अध्याय 4 श्लोक 28 में फिर कहा है कि:-
  • कुछ साधक घोर तप करके अपनी साधना सफल मानते हैं।
  • कुछ योग आसन करके उन्हीं से चलती कार रोककर, छाती पर पत्थर रखकर फुड़वाते हैं। वजनदार रेहड़ी को खींचकर दिखाते हैं। हाथों पर चलकर दिखाते हैं। वे इसी को मोक्षदायक यानि पापनाशक जानते (मानते) हैं यानि अपने जीवन का अंतिम उद्देश्य मानते हैं।
  • बहुत सारे मुख पर कपड़े की पट्टी बाँधकर, नंगे पैरों रहकर हिंसा से व्रत यानि परहेज करते हैं अर्थात् हिंसा से बचते हैं। मनमाने मंत्रों का जाप करते हैं। इसी को पूर्ण साधना मानते हैं।
  • कुछ इसके साथ-साथ स्वाध्याय करते हैं यानि नित्य किसी ग्रन्थ का पठन-पाठन करते हैं। इस प्रकार की यज्ञों यानि धार्मिक अनुष्ठानों को करके पाप से मुक्ति मानते हैं।
  • गीता अध्याय 4 श्लोक 29-30:- इन दोनों श्लोकों में कहा है कि अन्य साधक प्राणायाम क्रियाऐं करते हैं। पान वायु वह है जो श्वांस द्वारा अंदर शरीर में लेते हैं। अपान वायु वह है जो श्वांस द्वारा बाहर छोड़ते हैं तथा जो गुदा द्वार से गैस रूप में निकलती है, उसे भी अपान वायु कहते हैं। कुछ साधक अपान वायु को प्राण वायु में हवन करते हैं यानि रेचक-कुम्भक क्रिया से अभ्यास करते हैं। कुछ नियमित भोजन करते हैं और प्राणायाम का अभ्यास भी करते हैं। प्राणायाम करने वाले श्वांस लेने वाली वायु तथा अपान (अधोगति वाली वायु) को रोककर साधना करते हैं। इसी योगिक क्रिया को मोक्षदायक मानते हैं।
  • उपरोक्त श्लोक 25 से 30 तक में कहे साधक अपनी-अपनी यज्ञों द्वारा यानि आध्यात्मिक क्रियाओं द्वारा पापनाश होना जानते हैं। पाप रहित साधक ही मोक्ष प्राप्त करता है। भावार्थ है कि उपरोक्त सब साधक अपनी-अपनी धार्मिक क्रियाओं द्वारा मोक्ष मानते हैं।
  • गीता अध्याय 4 श्लोक 31 में कहा है कि हे कुरूश्रेष्ठ अर्जुन! उपरोक्त श्लोकों के वर्णन में जो यथार्थ ज्ञान नहीं है, उस बचे यज्ञों यानि साधना की क्रियाओं का ज्ञान जो गीता में नहीं है, वह तत्वज्ञान में है जिसका वर्णन शेष है। उस बचे हुए यज्ञों यानि धार्मिक साधनाओं के ज्ञान अर्थात् सूक्ष्मवेद के अनुसार अनुष्ठान करने से बचे प्रसाद को खाने वाले तत्वज्ञान से परिचित होकर सत्य साधना करके सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। जो भक्ति नहीं करते, वे इसी लोक में दुःखी रहते हैं तो वे अन्य ऊपर के लोकों में कैसे सुखी होंगे? उस सनातन परमात्मा को तत्वज्ञान से प्राप्त किया जाता है।

तत्वज्ञान (सूक्ष्मवेद) कैसे प्राप्त हुआ? उसका संकेत गीता अध्याय 4 श्लोक 32 में इस प्रकार है:-

गीता अध्याय 4 श्लोक 32:- इस श्लोक में सूक्ष्मवेद की उत्पत्ति का संकेत दिया है। कहा है कि सूक्ष्मवेद में इस प्रकार की (उपरोक्त क्रियाऐं) तथा अन्य यज्ञों यानि धार्मिक साधनाओं का वर्णन विस्तार के साथ किया है। उपरोक्त साधनाओं से लाभ क्या है? हानि क्या है? यह भी सूक्ष्मवेद में बताया है तथा यथार्थ भक्ति साधना जो पूर्ण मोक्षदायक है, उनका वर्णन भी (ब्रह्मणः मुखे) सच्चिदानंद घन ब्रह्म ने अपने मुख कमल से बोली वाणी में विस्तार के साथ बताया है। वह तत्वज्ञान (सूक्ष्मवेद) है जिसमें यथार्थ मोक्षदायक साधना है। वह कर्म (कार्य) करते-करते करने की है यानि हठयोग की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार साधक सूक्ष्मवेद को जानकर सत्य साधना करके मोक्ष प्राप्त करता है।

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