पूजा तथा साधना में अंतर (Difference between Pooja and Sadhna)

प्रश्न:- काल ब्रह्म की पूजा करनी चाहिए या नहीं? गीता में प्रमाण दिखाऐं।

उत्तरः- नहीं करनी चाहिए। पहले आप जी को पूजा तथा साधना का भेद बताते हैं।

भक्ति अर्थात् पूजा:- जैसे हमारे को पता है कि पृथ्वी के अन्दर मीठा शीतल जल है। उसको प्राप्त कैसे किया जा सकता है? उसके लिए बोकी के द्वारा जमीन में सुराख किया जाता है, उस सुराख (bore) में लोहे की पाईप डाली जाती है, फिर हैण्डपम्प (नल) की मशीन लगाई जाती है, तब वह शीतल जीवनदाता जल प्राप्त होता है।

हमारा पूज्य जल है, उसको प्राप्त करने के लिए प्रयोग किए उपकरण तथा प्रयत्न साधना जानें। यदि हम उपकरणों की पूजा में लगे रहे तो जल प्राप्त नहीं कर सकते, उपकरणों द्वारा पूज्य वस्तु प्राप्त होती है।

अन्य उदाहरण:- जैसे पतिव्रता स्त्राी परिवार के सर्व सदस्यों का सत्कार करती है, सास-ससुर का माता-पिता के समान, ननंद का बड़ी-छोटी बहन के समान, जेठ-देवर का बड़े-छोटे भाई के समान, जेठानी-देवरानी का बड़ी-छोटी बहनों के समान, परंतु वह पूजा अपने पति की करती है। जब वे अलग होते हैं तो अपने हिस्से की सर्व वस्तुऐं उठाकर अपने पति वाले मकान में ले जाती है।

अन्य उदाहरण:- जैसे हमारी इच्छा आम खाने की होती है, हमारे लिए आम का फल पूज्य है। उसे प्राप्त करने के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है। धन संग्रह करने के लिए मजदूरी/नौकरी/खेती-बाड़ी करनी पड़ती है, तब आम का फल प्राप्त होता है। इसलिए आम पूज्य है तथा अन्य क्रिया साधना है। साध्य वस्तु को प्राप्त करने के लिए साधना करनी पड़ती है, साधना भिन्न है, पूजा अर्थात् भक्ति भिन्न है। स्पष्ट हुआ।

प्रश्न चल रहा है कि क्या ब्रह्म की पूजा करनी चाहिए। उत्तर में कहा है कि नहीं करनी चाहिए। अब श्रीमद् भगवत गीता में प्रमाण दिखाते हैं। गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में तो गीता ज्ञान दाता ने बता दिया कि तीनों गुणों (रजगुण श्री ब्रह्मा जी, सतगुण श्री विष्णु जी तथा तमगुण श्री शिव जी) की भक्ति व्यर्थ है। फिर गीता अध्याय 7 के श्लोक 16-17-18 में गीता ज्ञान दाता ब्रह्म ने अपनी भक्ति से होने वाली गति अर्थात् मोक्ष को “अनुत्तम” अर्थात् घटिया बताया है। बताया है कि मेरी भक्ति चार प्रकार के व्यक्ति करते हैं।

  1. अर्थार्थी:- धन लाभ के लिए वेदों अनुसार अनुष्ठान करने वाले।
  2. आर्त:- संकट निवारण के लिए वेदों अनुसार अनुष्ठान करने वाले।
  3. जिज्ञासु:- परमात्मा के विषय में जानने के इच्छुक। (ज्ञान ग्रहण करके स्वयं वक्ता बन जाने वाले) इन तीनों प्रकार के ब्रह्म पुजारियों को व्यर्थ बताया है।
  4. ज्ञानी:- ज्ञानी को पता चलता है कि मनुष्य जन्म बड़ा दुर्लभ है। मनुष्य जीवन प्राप्त करके आत्म-कल्याण कराना चाहिए। उन्हें यह भी ज्ञान हो जाता है कि अन्य देवताओं की पूजा से मोक्ष लाभ होने वाला नहीं है। इसलिए एक परमात्मा की भक्ति अनन्य मन से करने से पूर्ण मोक्ष संभव है। उनको तत्वदर्शी सन्त न मिलने से उन्होंने जैसा भी वेदों को जाना, उसी आधार से ब्रह्म को एक समर्थ प्रभु मानकर यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 15 से ओम् नाम लेकर भक्ति की, परन्तु पूर्ण मोक्ष नहीं हुआ। ओम् (ऊँ) नाम ब्रह्म साधना का है, उससे ब्रह्मलोक प्राप्त होता है जोकि पूर्व में प्रमाणित किया जा चुका है। गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में कहा है कि ब्रह्म लोक प्रयन्त सब लोक पुनरावर्ती में हैं अर्थात् ब्रह्म लोक में गए साधक भी पुनः लौटकर संसार में जन्म-मृत्यु के चक्र में गिरते हैं।

काल ब्रह्म की साधना से वह मोक्ष प्राप्त नहीं होता जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में बताया है कि “तत्वज्ञान से अज्ञान को काटकर परमेश्वर के उस परम पद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी वापिस नहीं आते।‘‘

गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि ये ज्ञानी आत्मा (जो चौथे नम्बर के ब्रह्म के साधक कहें हैं) हैं तो उदार अर्थात् नेक, परंतु ये तत्वज्ञान के अभाव से मेरी अनुत्तम् गति में ही स्थित रहे। गीता ज्ञान दाता ने अपनी साधना से होने वाली गति को भी अनुत्तम अर्थात् घटिया कहा है, इसलिए ब्रह्म पूजा करना भी उचित नहीं।

कारण:- एक चुणक नाम का ऋषि ज्ञानी आत्मा था। उसने ओम् (ऊँ) नाम का जाप तथा हठयोग हजारों वर्ष किया। जिससे उसमें सिद्धियाँ आ गई। ब्रह्म की साधना करने से जन्म-मृत्यु, स्वर्ग-नरक का चक्र सदा बना रहेगा क्योंकि गीता अध्याय 2 श्लोक 12, गीता अध्याय 4 श्लोक 5ए गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में गीता ज्ञान दाता ब्रह्म ने कहा है कि अर्जुन! तेरे और मेरे अनेकों जन्म हो चुके हैं, तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। तू, मैं तथा ये सर्व राजा लोग पहले भी जन्में थे, आगे भी जन्मेंगे। यह न सोच कि हम सब अब ही जन्में हैं। मेरी उत्पत्ति को महर्षिजन तथा ये देवता नहीं जानते क्योंकि ये सब मेरे से उत्पन्न हुए हैं।

इससे स्वसिद्ध है कि जब गीता ज्ञान दाता ब्रह्म भी जन्मता-मरता है तो इसके पुजारी अमर कैसे हो सकते हैं? इससे यह सिद्ध हुआ कि ब्रह्म की उपासना से वह मोक्ष नहीं हो सकता जो गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में तथा अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है। इन श्लोकों में गीता ज्ञान दाता ने स्पष्ट निर्देश दिया है कि हे भारत! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर परम अक्षर ब्रह्म की शरण में जा। उस परमेश्वर की कृपा से ही तू परमशान्ति को तथा सनातन परमधाम अर्थात् सत्यलोक को प्राप्त होगा। तत्वज्ञान समझकर उसके पश्चात् परमात्मा के उस परम पद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आते। विचार करें कि गीता ज्ञान दाता तो स्वयं जन्मता-मरता है। इसलिए ब्रह्म की पूजा से होने वाली गति अनुत्तम कही है।

अब चुणक ऋषि का प्रसंग आगे सुनाते हैं:- चुणक ऋषि ने ऊँ (ओम्) नाम का जाप तथा हठ योग किया। वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद) में बताई भक्ति से परमात्मा प्राप्ति नहीं होती। इसका प्रमाण गीता अध्याय 11 श्लोक 47- 48 में है। गीता ज्ञान दाता ब्रह्म ने बताया है कि हे अर्जुन! मुझ काल ब्रह्म का यह विराट रूप है। मेरे इस रूप के दर्शन तेरे अतिरिक्त पहले किसी को नहीं हुए, मैंने तेरे ऊपर अनुग्रह करके यह रूप दिखाया है। मेरे इस रूप के दर्शन अर्थात् ब्रह्म प्राप्ति न तो वेदों में वर्णित विधि से अर्थात् ऊँ नाम के जाप से, न तप से, न हवन आदि-आदि यज्ञों से होते हैं अर्थात् वेदों में वर्णित विधि से ब्रह्म प्राप्ति नहीं होती। यही कारण रहा कि चुणक जैसे ऋषि भी ब्रह्म को निराकार कहते रहे। चुणक ऋषि में सिद्धियाँ आ गई। जिस कारण से संसार में प्रसिद्ध हो गया। सिद्धि प्राप्त साधक अपनी वर्षों की साधना से की गई चार्ज बैट्री से किसी को श्राप देकर अपनी भक्ति का नाश करते हैं, किसी को आशीर्वाद देकर अपनी भक्ति का नाश करते हैं। किसी पर सिद्धि से जन्त्रा-मन्त्रा करके अपनी भक्ति का नाश करते हैं तथा संसार में प्रशंसा के पात्रा बनकर स्वयं प्रभु बन बैठते हैं।

एक मानधाता चक्रवर्ती राजा था। उसका पूरी पृथ्वी पर राज्य था। उसने अपने राज्य में यह जाँचना चाहा कि क्या पृथ्वी के अन्य राजा जो मेरे आधीन हैं क्या उनमें से कोई स्वतन्त्रा होना चाहता है? इसलिए राजा ने अपने निजी घोड़े के गले में एक पत्रा लिखकर बाँध दिया कि जिस किसी राजा को मानधाता राजा की पराधीनता स्वीकार न हो, वह इस घोड़े को पकड़ ले और युद्ध के लिए तैयार हो जाए, राजा के पास 72 अक्षौणी सेना है। उस घोड़े के साथ सैंकड़ों सैनिक भी चले। सारी पृथ्वी पर चक्कर लगाया। किसी राजा ने उस घोड़े को नहीं पकड़ा। इससे स्पष्ट हो गया कि पूरी पृथ्वी के छोटे राजा अपने चक्रवर्ती शासक मानधाता के आधीन हैं। सर्व सैनिक जो घोड़े के साथ थे, खुशी से वापिस आ रहे थे। रास्ते में ऋषि चुणक की कुटिया थी। चुणक ऋषि ने सैनिकों से पूछा जो घोड़ों पर सवार थे कि हे सैनिको! कहाँ गए थे? इस घोड़े का सवार कहाँ गया? सैनिकों ने ऋषि जी को सर्व बात बताई। ऋषि ने कहा क्या किसी ने राजा मानधाता का युद्ध नहीं स्वीकारा? सैनिक बोले कि है किसी की बाजुओं में दम, पिलाया है किसी माता ने दूध जो हमारे राजा के साथ युद्ध कर ले। राजा के पास 72 अक्षौणी अर्थात् 72 करोड़ सेना है। जॉड़ तोड़ देंगे यदि किसी ने युद्ध करने की हिम्मत की तो। ऋषि चुणक जो काल ब्रह्म का पुजारी था ने कहा कि हे सैनिको! आपके राजा का युद्ध मैंने स्वीकार कर लिया, यह घोड़ा बाँध दो मेरी कुटिया वाले वृक्ष से। सैनिक बोले कि हे कंगले! तेरे पास दाने तो खाने को नहीं हैं, क्या युद्ध करेगा तू राजा मानधाता के साथ? अपनी भक्ति कर ले, क्यों श्यात् बोल दे रही है तेरी अर्थात् तेरी क्यांे सामत आई है? ऋषि ने कहा, जो होगा सो देखा जाएगा। जाओ, कह दो तुम्हारे राजा को कि तुम्हारा युद्ध चुणक ऋषि ने स्वीकार कर लिया है। राजा को पता चला तो सोचा कि आज एक कंगाल सिरफिरे ऋषि की हिम्मत हुई है, कल कोई अन्य हिम्मत करेगा। बुराई को प्रारम्भ में ही समाप्त कर देना चाहिए। जनता को भयभीत करने के लिए एक व्यक्ति को मारने के लिए राजा ने 72 करोड़ सेना की चार टुकड़ियाँ बनाई। एक टुकड़ी 18 करोड़ सैनिक पहले भेजे ऋषि से युद्ध करने के लिए। काल ब्रह्म के पुजारी चुणक ऋषि ने सिद्धि शक्ति से चार पुतलियाँ बनाई अर्थात् चार परमाणु बम्ब तैयार किए। एक पुतली छोड़ी, उसने 18 करोड़ सेना को काट डाला। राजा ने दूसरी टुकड़ी भेजी। ऋषि ने दूसरी पुतली छोड़ी। इस प्रकार राजा मानधाता की 72 क्षौणी सेना का नाश काल ब्रह्म के पुजारी चुणक ने कर दिया।

विचार करें:- ऋषि-महर्षियों को राजाओं के बीच में टाँग नहीं अड़ानी चाहिए। कारण यह है कि ऋषिजनों ने हजारों वर्ष ॐ नाम का जाप किया परमात्मा प्राप्ति के लिए। परमात्मा मिला नहीं क्योंकि गीता अध्याय 11 श्लोक 47-48 में लिखा है कि वेदों में (चारों वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद) वर्णित भक्ति विधि से ब्रह्म प्राप्ति नहीं है। इसलिए इससे ऋषियों में सिद्धियाँ प्रकट हो जाती हैं। अज्ञानता के कारण उसी भूल-भूलइया को ये भक्ति की उपलब्धि मान बैठे। जिस कारण से भक्ति करके भी उस पद को नहीं प्राप्त कर सके, जहाँ जाने के पश्चात् पुनः जन्म नहीं होता क्योंकि इनको तत्वदर्शी सन्त नहीं मिले। सूक्ष्म वेद में कहा कि:-

कबीर, गुरू बिन काहू न पाया ज्ञाना, ज्यों थोथा भुस छडे़ मूढ़ किसाना।
गुरू बिन वेद पढे़ जो प्राणी, समझे न सार रहे अज्ञानी।।
गरीब, बहतर क्षौणी खा गया, चुणक ऋषिश्वर एक।
देह धारें जौरा फिरें, सबही काल के भेष।।

भावार्थ:- तत्वदर्शी सन्त गुरू न मिलने के कारण जो साधना साधक करते हैं, वह शास्त्रा विधि त्यागकर मनमाना आचरण होता है जिससे कोई लाभ साधक को नहीं होता। गीता अध्याय 16 श्लोक 23.24 में प्रमाण है कि हे भारत! जो साधक शास्त्राविधि को त्यागकर मनमाना आचरण करता है, उसको न तो सुख होता है, न सिद्धि प्राप्त होती है और न ही उसकी गति अर्थात् मोक्ष होता है। इससे तेरे लिए शास्त्र ही प्रमाण हैं कि कौन-सी साधना करनी चाहिए और कौन-सी नहीं करनी चाहिए।

गुरू बिना अर्थात् तत्वदर्शी सन्त के बिना चाहे वेदों को पढ़ते रहो, चाहे उनको कण्ठस्थ भी करलो जैसे पहले के ब्राह्मण वेदों के मन्त्रों को याद कर लेते थे। जो चारों वेदों के मन्त्रा याद कर लेता था, वह चतुर्वेदी कहलाता था। जो तीन वेदों के मन्त्रों को याद कर लेता था, वह त्रिवेदी कहलाता था। परंतु उनको वेदों के गूढ़ रहस्यों का ज्ञान न होने के कारण वे ऋषिजन वेदों को पढ़कर-घोटकर भी अज्ञानी रहे। सूक्ष्मवेद में कहा है कि:-

पीठ मनुखा दाख लदी है, ऊँट खात बबूल।

भावार्थ है कि पहले के समय में रेगिस्तान में ऊँटों पर मुनक्का दाख लादकर ले जाते थे। ऊँट पीठ पर तो इतनी स्वादिष्ट मनुका दाख लादे हुए होता था और स्वयं बबूल (कीकर) पेड़ के काँटों में मुख मार-मारकर बबूल के पत्ते खा रहा होता था। बिना ज्ञान के सर्व ऋषि जी चारों वेदों रूपी मनुका दाख को लादे फिरते थे और पूजा करते थे काल ब्रह्म रूपी बबूल की जिससे न सनातन परम धाम और न ही परम शांति प्राप्त होती थी। फिर सूक्ष्मवेद में कहा है कि:-

बनजारे के बैल ज्यों, फिरा देश-विदेश।
खाण्ड छोड़ भुष खात है, बिन सतगुरू उपदेश।।

भावार्थ है कि पहले के समय में बैलों के ऊपर गधे की तरह थैला (बोरा) रखकर उसमें खाण्ड भरकर बनजारे अर्थात् व्यापारी लोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर लाते-ले जाते थे। बैल की पीठ पर बोरे में खाण्ड है, स्वयं भुष खाया करता। इसी प्रकार गुरू द्वारा तत्वज्ञान न मिलने के कारण ऋषिजन वेदों रूपी खाण्ड (चीनी) को तो कण्ठस्थ करके रखते थे। उनको ठीक से न समझकर साधना वेद विरूद्ध करते थे।

उदाहरण के लिए:-

श्री देवी पुराण (सचित्र मोटा टाईप केवल हिन्दी गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित) के 5वें स्कंद पृष्ठ 414 पर लिखा है:- वेद व्यास जी ने कहा कि सत्ययुग के ब्राह्मण वेद के पूर्ण विद्धान थे। वे देवी अर्थात् श्री दुर्गा जी की पूजा करते थे। प्रत्येक गाँव में श्री देवी का मंदिर बनवाने की उनकी प्रबल इच्छा थी।

पाठकजन विचार करें:-

चारों वेदों में तथा इन्हीं वेदों के सारांश श्रीमद् भगवत गीता में कहीं पर भी देवी की पूजा करने का निर्देश नहीं है तो सत्ययुग के ब्राह्मण क्या खाक विद्वान थे वेदों के। इसी श्री देवी पुराण के 7वें स्कंद में पृष्ठ 562, 563 पर श्री देवी जी ने राजा हिमालय से कहा था कि तू मेरी पूजा भी त्याग दे। यदि ब्रह्म प्राप्ति चाहता है तो और सब बातों को त्यागकर केवल ओम् (ॐ) का जाप कर। यह ब्रह्म का मंत्रा है। इससे ब्रह्म को प्राप्त हो जाएगा। वह ब्रह्म ब्रह्मलोक रूपी दिव्य आकाश में रहता है। पाठकजन आसानी से समझेंगे कि जब सत्ययुग के ब्राह्मणों का यह ज्ञान तथा साधना थी तो वर्तमान के ब्राह्मणों को क्या ज्ञान होगा? इसी श्री देवी पुराण के 5वें स्कन्द में पृष्ठ 414 पर यह भी लिखा है कि सत्ययुग में जो राक्षस समझे जाते थे, वे कलयुग में ब्राह्मण माने जाते हैं। ब्राह्मण कोई जाति विशेष नहीं है।

जो परमात्मा अर्थात् ब्रह्म के लिए प्रयत्नशील है, वही ब्राह्मण कहलाता है चाहे किसी भी जाति का हो। वर्तमान में परंपरागत ब्राह्मण कम हैं। संत रूप में ब्रह्मज्ञान देने वाले अधिक हैं जो ब्राह्मण अर्थात् मार्गदर्शक गुरू कहलाते हैं और तत्वज्ञानहीन हैं। इसलिए कहा है कि तत्वदर्शी गुरू के बिना किसी को वेदों के गूढ़ रहस्यों का ज्ञान नहीं हुआ, जिस कारण से वेदों को पढ़ते थे, परंतु साधना वेद विरूद्ध करते थे। वेदों व गीता में तीनों देवताओं (श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी) की पूजा करना निषेध है। सर्व हिन्दू समाज ज्ञानहीन संतों द्वारा इन्हीं तीनों देवताओं पर केन्द्रित कर रखा है, श्री देवी दुर्गा तथा विष्णु जी, शिव जी की भक्ति कर तथा करा रहे हैं। पहले से ही यह लोकवेद (दंत कथा) का ज्ञान चला आ रहा है जो आज मेरे सामने दीवार बनकर खड़ी है। मैं शास्त्रोक्त ज्ञान बताता हूँ, प्रोजैक्टर पर दिखाता हूँ। परंतु पहले के अज्ञान को सत्य मानकर सत्य को आँखों देखकर भी विश्वास नहीं कर रहे। विरोध करते हैं, जेल में भिजवा देते हैं।

सूक्ष्मवेद में कहा है कि:-

गरीब, वेद पढ़ैं पर भेद न जानें, बाँचैं पुराण अठारह।
पत्थर की पूजा करें, बिसरे सिरजनहारा।।

भावार्थ है कि वेद तथा अठारह पुराणों को पढ़ते हैं और मूर्ति की पूजा करते हैं। वेदोक्त सर्व के सृजनहार परम अक्षर ब्रह्म को भूल गए हैं। अन्य प्रभुओं की पूजा करके उस परम शक्ति तथा सनातन परम धाम अर्थात् परमेश्वर के उस परम पद से वंचित रह जाते हैं जो गीता अध्याय 18 श्लोक 62 तथा अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है। सूक्ष्मवेद में लिखा है कि:-

गुरूवां गाम बिगाड़े संतो, गुरूवां गाम बिगाड़े।
ऐसे कर्म जीव के ला दिए, फिर झड़ैं नहीं झाड़े।।

भावार्थ है कि वेद ज्ञानहीन तत्वज्ञान से अपरीचित गुरूओं ने गाँव के गाँव में शास्त्राविरूद्ध ज्ञान व भक्ति का अज्ञान सुनाकर उनको इतना भ्रमित कर दिया कि वे अब समझाए से भी शास्त्रा विरूद्ध साधना को त्यागने के लिए तैयार नहीं होते। गीता अध्याय 16 श्लोक 23 में लिखा है कि शास्त्रा विधि त्यागकर मनमाना आचरण करने से न तो सिद्धि प्राप्त होती है, न सुख प्राप्त होता है और न गति होती है अर्थात् व्यर्थ साधना है।

दूसरी ओर आप जी ने चुणक ऋषि की कथा में पढ़ा कि ऋषि चुणक जी को सिद्धियाँ प्राप्त हो गई। पाठकों को यह समझना है कि सिद्धि भक्ति का बाई प्रोडैक्ट है, जैसे जौं का भी भूस (तूड़ा) होता है जिसमें तुस बहुत होते हैं। पशु खाता है तो मुख में जख्म कर देते हैं। यह सिद्धि प्राप्त होती है काल ब्रह्म की भक्ति से जो चुणक ऋषि जी को प्राप्त हुई।

जो शास्त्र विधि अनुसार भक्ति करने से सिद्धि प्राप्त होती है, वह गेहूँ का भुस (तूड़ा) समझें जो पशुओं के लिए उपयोगी तथा खाने में सुगम होता है। भावार्थ है कि शास्त्राविधि अनुसार साधना न करने से जो सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, वे साधक को नष्ट करती हैं क्योंकि अज्ञानतावश ऋषिजन उनका प्रयोग करके किसी की हानि कर देते हैं, किसी को आशीर्वाद देकर अपनी भक्ति की शक्ति जो ॐ नाम के जाप से होती है, उसको समाप्त करके फिर से खाली हो जाते हैं।

जैसे चुणक ऋषि जी ने मानधाता चक्रवर्ती राजा की 72 करोड़ सेना का नाश कर दिया, अपनी भक्ति की सिद्धि भी खो दी। सूक्ष्मवेद में कहा है कि:-

गरीब, बहतर क्षौणी क्षय करी, चुणक ऋषिश्वर एक।
देह धारें जौरा (मृत्यु) फिरैं, सब ही काल के भेष।।

भावार्थ:- ऋषियों में सर्वश्रेष्ठ ऋषि चुणक जी ने 72 करोड़ सेना का नाश कर दिया। ये दिखाई तो देते हैं महात्मा, लेकिन जब इनसे पाला पड़ता है तो ये निकलते हैं सर्प जैसे, जरा-सी बात पर श्राप दे देना, किसी से बेमतलब पंगा ले लेना इनके लिए आम बात होती है।

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